फिल्म ‘सेक्शन 375’ की समीक्षा

न्याय प्रक्रिया के छिद्रों में झांकती फिल्म
राजीव रंजन

निर्देशक: अजय बहल

कलाकार: अक्षय खन्ना, रिचा चड्ढा, राहुल भट्ट, मीरा चोपड़ा, कृतिका देसाई

3 स्टार

कहते हैं कि जो दिखता है, जरूरी नहीं कि सच हो। हो सकता है कि सच परतों के नीचे दबा हो, और जो दिख रहा हो, वह अर्द्धसत्य हो, या झूठ भी हो। सच कोे ऊपर लाने के लिए परतों को उघाड़ना पड़ता है। फिल्म ‘सेक्शन 375’ यही काम करती है। वह भी सधे तरीके से। भारतीय दंड संहिता की धारा 375 रेप को परिभाषित करती है कि अगर किसी महिला की इच्छा के विरुद्ध, उसकी सहमति के बगैर, जबरदस्ती, दबाव देकर, धोखाधड़ी कर या जब वह नशे में की हालत में हो, मानसिक रूप से ठीक हालत में नहीं हो और अगर उसकी उम्र 18 वर्ष से कम हो, तो उसके यौन संबंध स्थापित करना रेप है।’ फिल्म की कहानी इसी धारा की बुनियाद पर बुनी गई है।
रोहन खुराना (राहुल भट्ट) एक बड़ा निर्देशक है। उस पर अपनी यूनिट में काम करने वाली एक जूनियर कॉस्ट्यूम असिस्टेंट अंजलि दांगले (मीरा चोपड़ा) के रेप का आरोप लगता है। सबूत इतने सशक्त और स्पष्ट हैं कि रोहन को 10 साल की सजा हो जाती है। वह अपनी पत्नी कायनाज (श्रीस्वरा) को यह भरोसा दिलाता है कि उसके साथ षड्यंत्र किया गया है। उसकी पत्नी उच्च न्यायालय में इस फैसले के खिलाफ पैरवी करने के लिए हाई प्रोफाइल वकील तरुण सलुजा (अक्षय खन्ना) के पास जाती है। तरुण की पत्नी (संध्या मृदुल) इस केस को लेने पर सवाल करती है कि उसने एक रेपिस्ट का केस क्यों लिया? तरुण कहता है कि हर व्यक्ति को न्यायिक सहायता पाने का अधिकार है। वहीं सरकार की ओर से इस मामले की पैरवी पब्लिक प्रोस्क्यूटर हिरल गांधी (रिचा चड्ढा) करती है। जैसे-जैसे मुकदमा आगे बढ़ता है, कई नई बातें सामने आती हैं और पूरी न्याय व्यवस्था पर कई सवाल खड़े करती हैं। पुलिस के रवैये, कानूनों के दुरुपयोग पर बहस को जन्म देती है। पावर और पोजीशन का फायदा उठा कर किसी के साथ खिलवाड़ करने की प्रवृत्ति और प्रतिशोध के लिए कानून का गलत फायदा उठाने की प्रवृत्ति को भी कटघरे में खड़ा करती है।
पहले सीन से ही यह फिल्म अपने मुद्दे पर आ जाती है। कानून के विद्याथिर्यों को तरुण जब वकील के पेशे से जुड़े तीन नियम बताता है, उसी सीन से आभास हो जाता है कि यह फिल्म दिलचस्प होगी। फिल्म का सबसे बढ़िया पहलू है इसकी पटकथा और संवाद भी। जिस तरह से कोर्ट में बहस चलती है, उससे साफ है कि पटकथा पर काफी मेहनत की गई है। कोर्ट की कार्यवाही और धारा 375 के विभिन्न पहलुओं पर काफी रिसर्च के बाद इसे लिखा गया है। संवाद बहुत जानदार हैं। फिल्म को धार देने वाले। उदाहरण के लिए एक संवाद देखिए, जो रिचा चड्ढा से अक्षय खन्ना बोलते हैं- ‘वी आर नॉट इन द बिजनेस ऑफ जस्टिस, वी आर इन द बिजनेस ऑफ लॉ’ (हम न्याय के कारोबार में नहीं हैं, हम कानून के कारोबार में हैं)। यह संवाद पूरी कानूनी प्रक्रिया के एक कटु सत्य को बयां कर देता है। कसी पटकथा और बेहतरीन संवादों के लिए लेखक मनीष गुप्ता की प्रशंसा करनी होगी।
बतौर निर्देशक अजय बहल बहुत प्रभावित करते हैं। उन्होंने फिल्म को कहीं पटरी से उतरने नहीं दिया है। रेप पीड़िता के मेडिकल टेस्ट की प्रक्रिया को उन्होंने बहुत प्रामाणिक तरीके से प्रस्तुत किया है। साथ ही एक रेप केस के दौरान पीड़िता को कैसे अपने साथ हुई घटनाओं को दुहराने के लिए विवश होना पड़ता है और किन मनोस्थितियों से गुजरना पड़ता है, इसे भी बहल ने बहुत प्रामाणिकता से पेश किया है। फिल्म को उन्होंने इतने दिलचस्प तरीके से पेश किया है कि दर्शक बार-बार अपनी राय को बदलने पर मजबूर होते रहते हैं। वह फिल्म में न किसी को हीरो बनाते हैं, न किसी को खलनायक। बस यथार्थ तरीके से घटनाओं को प्रस्तुत करते हैं। ‘जो है, जैसा है’ की तर्ज पर। इस फिल्म में कोई गाना नहीं है, और फिल्म की थीम को देखते हुए इसे निर्देशक का एक अच्छा निर्णय कहा जाएगा। यह फिल्म एक हाई-प्रोफाइल वकील और एक सरकारी वकील के बीच के फर्क को भी दर्शाती है। उनके सहायकों और संसाधनों के फर्क को भी दिखाती है। साथ ही, कोर्ट ट्रायल पर मीडिया ट्रायल के दबाव को भी बहुत सुक्ष्मता से दिखाती है।
इस फिल्म की सबसे बड़ी कमी है कि इसमें करीब आधे संवाद अंग्रेजी में हैं और कुछ मराठी में। उन संवादों के सब-टाइटल भी हिंदी में नहीं दिए गए हैं, जो अखरने वाला है। यहां पर निर्देशक का यथार्थवाद फिल्म पर थोड़ा भारी पड़ने लगता है। ऐसा लगता है कि उन्होंने यह फिल्म एक खास वर्ग के लोगों को ध्यान में रख कर बनाई है। एक आदमी, जो अंग्रेजी नहीं जानता है, उसके पल्ले यह फिल्म नहीं पड़ेगी, क्योंकि फिल्म के बहुत सारे महत्वपूर्ण संवाद वह समझ ही नहीं पाएगा। इसके अलावा, रिचा चड्ढा के किरदार को भी उतनी मजबूती से नहीं गढ़ा गया, जितना अक्षय के किरदार को गढ़ा गया है। उनके हिस्से वैसे संवाद नहीं आए हैं, जैसे अक्षय खन्ना के पास हैं।
अक्षय खन्ना एक अच्छे अभिनेता हैं और इस फिल्म में तो वह बेहतरीन फॉर्म में नजर आते हैं। उनकी आंखों का एक्सप्रेशन गजब का है। ऐसा लगता है कि इस भूमिका के लिए उनसे बेहतर कोई हो ही नहीं सकता था। रिचा चड्ढा का अभिनय भी बहुत अच्छा है। वह बहुत सहजता से अपने किरदार को पेश करती हैं। मीरा चोपड़ा भी प्रभावित करती हैं। उनके पास संवाद कम हैं, लेकिन उनकी बॉडी लैंग्वेज प्रभावी है। राहुल भट्ट का अभिनय भी सधा हुआ है, वह अपने किरदार की जटिलता को उभारने में सफल रहे हैं। कृतिका देसाई जज के रूप में जमी हैं और पुरुष जज के रूप में किशोर कदम का अभिनय भी बहुत स्वाभाविक लगता है। दोनों जज स्वाभाविक लगते हैं। कोर्टरूम भी वास्तविकता का आभास देता है। अक्षय की पत्नी के रूप में संध्या मृदुल की भूमिका छोटी है, लेकिन वह असर छोड़ती हैं। बाकी कलाकार भी ठीक हैं।

इसमें बॉलीवुड स्टाइल का मनोरंजन तो नहीं है, लेकिन यह बांध कर रखती है और सीट से उठने का मौका नहीं देती। अगर आपको तार्किकता के साथ बनी गंभीर फिल्में देखना पसंद है, तो यह फिल्म आपके लिए है। जरूर देखिए।

(हिन्दुस्तान में 14 सितंबर, 2019 को संपादित अंश प्रकाशित)

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