फिल्म ‘छिछोरे’ की समीक्षा

मनोरंजन के साथ मुद्दे की बात
राजीव रंजन

निर्देशक: नितेश तिवारी

कलाकार: सुशांत सिंह राजपूत, श्रद्धा कपूर, वरुण शर्मा, प्रतीक बब्बर, ताहिर राज भसीन, नवीन पोलिशेट्टी, तुषार पांडे, सहर्ष शुक्ला, शिशिर शर्मा

ढाई स्टार (2.5 स्टार)

जिंदगी में जीतने की कोशिश सभी करते हैं, करनी भी चाहिए, लेकिन अगर किसी कारण से जीत नहीं पाए, तो उसके बाद क्या? इस ‘उसके बाद क्या’ का जवाब ढूंढ़ना भी बहुत जरूरी है, बल्कि ज्यादा जरूरी है। जीवन में जीत और हार के बीच में बहुत बड़ा स्पेस होता है। इस बीच के स्पेस में ही दुनिया की अधिसंख्य आबादी जी रही है और जीती है। बॉलीवुड की सबसे ज्यादा कमाऊ फिल्म ‘दंगल’ के निर्देशक नितेश तिवारी की फिल्म ‘छिछोरे’ का संदेश यही है।
इस फिल्म में एक दृश्य है- अनिरुद्ध यानी एन्नी अपने इंजीनियरिंग कॉलेज के दोस्तों के साथ बैठा है। उसका बेटा राघव अस्पताल में जीवन और मौत की लड़ाई रहा है। एन्नी कहता है, ‘मैंने उससे (अपने बेटे) ये तो कहा था कि तेरे सिलेक्ट हो जाने के बाद बाप-बेटे साथ मिलकर शैम्पेन पिएंगे। लेकिन मैंने उससे ये नहीं कहा कि सिलेक्ट नहीं होने पर क्या करेंगे!’ इस सीन के जरिये लेखक और निर्देशक एक जरूरी बात लोगों के सामने रखते कि हैं कि ‘प्लान ए’ से जरा भी कम अहम नहीं है ‘प्लान बी’। अगर आप सिर्फ सफलता को जेहन में रखेंगे, तो असफलता आपको तोड़ देगी।
अनिरुद्ध पाठक उर्फ एन्नी (सुशांत सिंह राजपूत) अपने काम में इतना मशगूल हो जाता है कि बाकी सारी चीजें पीछे छूटने लगती हैं। काम की वजह से उसका अपनी पत्नी माया (श्रद्धा कपूर) से अलगाव हो जाता है, जिससे वह कॉलेज के दिनों से बेहद प्यार करता था। एन्नी का बेटा राघव उसी के साथ रहता है। वह इंजीनियरिंग की तैयारी कर रहा है। जब प्रवेश परीक्षा का परिणाम आता है, तो उसका चयन नहीं होता। राघव गहरी हताशा में डूब जाता है। वह ‘लूजर्स’ के ठप्पे के साथ नहीं जीना चाहता और मौत का रास्ता चुन लेता है। अस्पताल में डॉक्टर (शिशिर शर्मा) एन्नी से कहते हैं कि उसके बेटे में जीने की इच्छा ही नहीं है, जिसके चलते उसकी हालत में सुधार नहीं हो पा रहा है। तब एन्नी बेटे को अपने कॉलेज के दिनों की कहानी सुनाता है और राघव इस कहानी पर विश्वास करे, इसलिए अपने कॉलेज के दोस्तों को ढूंढ़ कर बुलाता है। सेक्सा (वरुण शर्मा), मम्मी (तुषार पांडे), डेरेक (ताहिर राज भसीन), एसिड (नवीन पोलिशेट्टी), बेवड़ा (सहर्ष शुक्ला) अपना सारा काम-धाम छोड़ कर मुंबई पहुंचते हैं और राघव को बताते हैं कि अपने कॉलेज के दिनों में वे सबसे बड़े लूजर्स थे। और इस ठप्पे को हटाने के लिए उन्होंने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की थी...
यह फिल्म ‘दंगल’ के निर्देशक की है, इसलिए अच्छी होगी, ऐसी उम्मीद सबने पहले से लगा रखी थी। फिल्म जब शुरू होती है, तो इस उम्मीद को बरकरार भी रखती है कि लगता है, इस बार फिर नितेश तिवारी ऊंची चीज लेकर आए हैं। काफी देर तक यह अपने रास्ते पर सही तरीके से बढ़ती रहती है, लेकिन फिर संतुलन बिगड़ने लगता है। इंटरवल के बाद यह बॉलीवुडिया मायाजाल में फंस जाती है। इसका कलेवर और फ्लेवर थोड़ा फीका होने लगता है। लेखक और निर्देशक उन्हीं टोटकों को आजमाने लगते हैं, जो अनगिनत बॉलीवुड फिल्मों में हम न जाने कितनी बार देख चुके हैं। वे घटनाक्रम को आगे बढ़ाने के लिए यथार्थपूर्ण और तर्कसंगत कड़ियां बनाने में सफल नहीं रहे हैं। हो सकता है कि वे इस पर ज्यादा मेहनत करने के मूड में नहीं हों या फिर उनकी दृष्टि में किसी भी तरह मनोरंजन की छौंक लगाना ज्यादा महत्वपूर्ण हो। मनोरंजन में तो वे सफल रहे हैं, लेकिन कई बातें तर्कसंगत नहीं लगती। निर्देशक ने उनको स्पष्ट करने की कोशिश नहीं की है। कई जगह थोड़ा अधूरापन भी लगता है। क्लाईमैक्स पर जाकर यह फिर रास्ते पर आती है, लेकिन तब तक यह एक बेहतरीन फिल्म से औसत से थोड़ी ऊपर की श्रेणी वाली फिल्म के रूप में तब्दील हो चुकी होती है।
कहीं यह ‘थ्री इडियट्स’ के साये में चलती दिखाई देती है, तो कभी ‘जो जीता वही सिकंदर’ की चादर को ओढ़े हुए नजर आती है। हालांकि लेखक-निर्देशक अपना संदेश देने में सफल रहे हैं कि जाने-अनजाने अभिभावक अपनी उम्मीदों और महत्वाकांक्षाओं का बोझ अपने बच्चों पर लाद रहे हैं, जिसके तले दब कर बच्चे घुट रहे हैं। करियर और जीवन में थोड़ा पीछे रह गए अभिभावक अपनी दमित और अतृप्त इच्छाओं को अपने बच्चों के जरिये पूरा करने की चाहत में ऐसा कर रहे हैं, तो जो सफल हैं, वे बच्चों को अपनी तरह बनाने के चक्कर में उन पर दबाव डाल रहे हैं। हालांकि दोनों स्थितियों का दुष्परिणाम कमोबेश एक जैसा ही होता है।
पटकथा में कई विसंगतियां हैं। रह-रह कर यह बात कचोटती है कि जिस तरीके से फिल्म का आगाज हुआ था, उस तरह से वह अंजाम तक नहीं पहुंची। लेकिन कुछ कमियों के बावजूद यह फिल्म कई जगहों पर प्रभावित करती है, उद्वेलित करती है, जज्बे से भरती है, भावुक करती है और हंसाती भी है। और हां, बोझिल भी नहीं है। कई संवाद असरदार और मजेदार हैं। गीत-संगीत साधारण है। ‘फिकर नॉट’ गाना मजेदार है। पहले हाफ में फिल्म ज्यादा अच्छी है, दूसरा हाफ इसके असर को थोड़ा कम करता है। फिल्म की लंबाई थोड़ी कम हो सकती थी। नितेश तिवारी अच्छे निर्देशक हैं और इस फिल्म में भी उन्होंने ठीक काम किया है और निराश नहीं करते, लेकिन इस फिल्म में बतौर निर्देशक वह ‘दंगल’ की ऊंचाई पर नहीं पहुंच पाए हैं।
अभिनय इस फिल्म का एक प्रभावित करने वाला पक्ष है। अनिरुद्ध की भूमिका में सुशांत का काम ठीक है, लेकिन थोड़े उम्रदराज व्यक्ति के रूप में उनका मेकअप खराब है। वैसे मेकअप इस फिल्म का एक कमजोर पक्ष है। सुशांत कई जगह शाहरुख खान की नकल करते हुए भी नजर आते हैं, लेकिन कुल मिलाकर वह अपने किरदार को ठीक से पेश करने में सफल रहे हैं। श्रद्धा कपूर के पास करने को ज्यादा कुछ था नहीं, लेकिन जितना भी था, उन्होंने ठीक से किया है। पिछले हफ्ते रिलीज हुई ‘साहो’ की तरह इस फिल्म में भी उनके किरदार को ठीक से नहीं गढ़ा गया है। वरुण शर्मा को अब तक ‘फुकरे’ के ‘चूचा’ जैसा किरदार ही मिलते रहे हैं। यह फिल्म भी अपवाद नहीं है। ‘सेक्सा’ नाम ही इसकी तस्दीक कर देता है। लेकिन वरुण की दाद देनी पड़ेगी कि एक ही तरह के किरदारों में भी वे अपनी छाप छोड़ देते हैं। एन्नी के कॉलेज के सीनियर रैगी के नकारात्मक शेड वाले किरदार में प्रतीक बब्बर का काम अच्छा है। डेरक के रूप में ताहिर राज भसीन ने अपने किरदार के साथ पूरा न्याय किया है। नवीन पोलिशेट्टी, तुषार पांडे, सहर्ष शुक्ला भी अपने अभिनय से प्रभावित करते हैं। छोटी-छोटी भूमिकाओं में आए कलाकार भी अच्छे रहे हैं।
इस फिल्म का विषय बहुत अलग हट कर तो नहीं है और यह कोई मास्टरपीस भी नहीं है, लेकिन एक बार देखने लायक जरूर है। इसमें संदेश भी है और मनोरंजन भी।
(6 सितंबर को livehindustan.com और 7 सितंबर को हिन्दुस्तान में संपादित अंश प्रकाशित)

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