फिल्म पानीपत की समीक्षा

मराठा शौर्य की गौरव गाथा

राजीव रंजन

निर्देशक: आशुतोष गोवारिकर

कलाकार: अर्जुन कपूर, संजय दत्त, कृति सैनन, मोहनीश बहल, मंत्रा, कुणाल कपूर, पद्मिनी कोल्हापुरे, जीनत अमान, नवाब शाह, मनोज बख्शी, साहिल सलाथिया

तीन स्टार

पानीपत का तृतीय युद्ध भारतीय इतिहास के सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण और चर्चित युद्धों में से एक है। 14 जनवरी, 1761 को मराठों और आधुनिक अफगान साम्राज्य के संस्थापक माने जाने वाले अहमद शाह अब्दाली के बीच लड़ा गया यह युद्ध मराठा सेनापति सदाशिवराव भाऊ पेशवा की वीरता के साथ देसी राजाओं के आपसी वैमनस्य की भी गाथा है।
यह वह समय था, जब मराठा सम्राज्य अपने उत्कर्ष पर था, मुगल सल्तनत बस नाम की रह गई थी और मराठो के संरक्षण में चल रही थी। इसी समय अंग्रेज भी भारत में अपना प्रभुत्व स्थापित करने की कोशिशों में लगे थे और 1757 में पलासी का युद्ध जीत कर भारत पर अपना पूर्ण राज्य स्थापित करने की ओर बढ़ रहे थे। अपने निजी स्वार्थों में लिप्त ज्यादातर भारतीय राजे-रजवाड़े और नवाब, सरदार आने वाले बड़े खतरे से बेखबर थे। मराठों के उत्कर्ष से उत्तर भारत के बहुत सारे रजवाड़ों और रियासतों में भय पैदा हो गया था। उन्हें मराठों को चौथ (अपने राजस्व का चौथाई हिस्सा) देना पड़ता था। इन्हीं में अवध का नवाब शुजाऊद्दौला और उत्तर भारत के दोआब क्षेत्र का रोहिला सरदार नजीबुद्दौला भी शामिल था।

अब्दाली इसके पहले भी दिल्ली पर कई बार आक्रमण कर लूटपाट कर चुका था। 1757 में उसने भारत पर सबसे बड़ा आक्रमण किया था और एक महीने तक दिल्ली में भयानक लूटपाट मचाई थी। फिर भी वह दिल्ली का शासक नहीं बन सका था। लिहाजा, जब उसे मराठों को रोकने का निमंत्रण नजीबुद्दौला जैसे लोगों से मिला, तो उसने इसे हिंदुस्तान पर हुकूमत कायम करने के मौके के तौर पर लिया। सदाशिवराव के नेतृत्व में मराठा सेना उत्तर भारत के कई राजाओं की मदद लेते हुए दिल्ली की ओर बढ़ रही थी। उन्होंने अफगानों को हराकर कुंजपुरा का किला जीत लिया था और आगे बढ़ते जा रहे थे। वहीं अब्दाली भी दिल्ली की ओर बढ़ रहा था। अंतत: मराठों के साथ उसका सामना 14 जनवरी, 1961 को पानीपत में हुआ।
कुछ देसी शासकों के विश्वासघात, कुछ रणनीतिक गलतियों और रसद तथा दूसरे संसाधनों की कमी के कारण मराठों को इस युद्ध में हार का सामना करना पड़ा। इस युद्ध में सदाशिव राव, नानासाहब पेशवा के पुत्र विश्वास राव, शमशेर बहादुर, मराठा तोपखाने के प्रभारी इब्राहिम गार्दी और कई दूसरे मराठा सरदार मारे गए। कुछ बच के निकल गए। लेकिन इस युद्ध ने अब्दाली के हिंदुस्तान पर सपना भी तोड़ दिया। इसके बाद वह कभी भारत नहीं लौटा। इस युद्ध के बाद मराठों ने अपनी शक्ति एकत्रित कर फिर से उत्तर भारत में अपना प्रभुत्व स्थापित किया। हालांकि इस युद्ध से करीब छह माह बाद अपने पुत्र विश्वासराव और चचेरे भाई सदाशिवराव की मृत्यु के सदमे से नानासाहब पेशवा भी चल बसे। कहते हैं, महाराष्ट्र में ऐसा कोई परिवार नहीं था, जिसने इस युद्ध में किसी को न खोया हो।
पानीपत के इसी तृतीय युद्ध पर आधारित है आशुतोष गोवारिकर निर्देशित ‘पानीपत’। यह एक अच्छी तरह से बनाई गई फिल्म है। फिल्म माध्यम की जरूरतों के अनुसार इसमें कुछ चीजों में जोड़-घटाव को छोड़ दें, तो गोवारिकर ने इतिहास के साथ ज्यादा छेड़छाड़ नहीं की है। इस कहानी के नायक सदाशिवराव (अर्जुन कपूर) हैं और कहानी उनके शौर्य, उनकी देशभक्ति को पूरी सक्षमता से दिखाती है। इसमें लेखक और निर्देशक ने कई पक्षों को संदर्भ के रूप में पेश किया है, जो भारत की तत्कालीन राजनैतिक दृश्य को बयां करते हैं। गोवारिकर ने पेशवाओं की आंतरिक राजनीति; जाति, वर्ग धर्म के आधार पर बंटे और देशहित की बजाय निजी लाभों को पहले रखने वाले तत्कालीन देसी राजा और नवाबों पर दृष्टि डाली है। गोवारिका फिल्म में युद्ध की निरर्थकता की बात भी करते हैं। साथ ही, युद्ध वाली इस फिल्म में सदाशिवराव और पर्वती (कृति सैनन) की प्रेम कहानी के जरिये कोमल भावनाओं को भी जगह दी है। एक बात और, सदाशिराव व अब्दाली  की उम्र में महज आठ साल का फर्क था, पर फिल्म में यह अंतर बहुत ज्यादा है। फिर भी आशुतोष गोवारिकर ने इस फिल्म को संतुलित ढंग से बनाने की कोशिश की है। उन्होंने अब्दाली को लुटेरा, साम्राज्यवादी और आक्रामक तो दिखाया है, लेकिन संजय लीला भंसाली की ‘पद्मावत’ के खिलजी की नृशंस नहीं दिखाया है। साथ ही, यह भी कोशिश की है कि यह एक हिन्दूवादी फिल्म न बन जाए। उन्होंने मराठा तोपखाने के प्रभारी इब्राहिम गार्दी के चरित्र को ठीक से पेश किया है। बहुत समय के बाद आशुतोष गोवारिक लय में लौटे हैं। उन्होंने सभी किरदारों को अच्छे-से गढ़ा है।

फिल्म थोड़ी लंबी है, अगर अगर 15 मिनट कम होती, तो और कसी हुई होती। पूर्वाद्ध थोड़ा धीमा है, लेकिन उत्तराद्र्ध चुस्त है। लंबी होने के बावजूद यह फिल्म दर्शकों की रुचि अपने में बनाए रखती है। अजय-अतुल का संगीत बढ़िया है। चाहे प्रेम के गीत हों या वीर रस के, कानों को सुहाते हैं। बैकग्राउंड संगीत भी ठीक है। सिनेमेटोग्राफी भी अच्छी है। कई दृश्य बहुत सुंदर लगते हैं। फिल्म भव्य है और मराठा गौरव को बहुत अच्छे से पेश करती है। सेट भव्य हैं, हालांकि कुछ जगहों पर उनमें खामियां भी हैं। लाल किला का सेट उतना वास्तविक नहीं लगता। विजुअल इफेक्ट कई जगह प्रभावित करते हैं, लेकिन कई दृश्यों में उनमें खामी भी साफ नजर आती है। अशोक चक्रधर के संवाद ठीक हैं। मराठी शब्दों का प्रयोग भी खूब किया गया है। हालांकि वो संवाद ऐसे हैं, जिनका भाव समझ में आ जाता है, इसलिए हिंदी दर्शकों को अखरेंगे नहीं। वैसे ऐसी फिल्मों के संवादों में थोड़ा और पंच होना चाहिए।
अब बात अभिनय की। अर्जुन कपूर ने शानदार अभिनय किया है। वह मराठा सेनापति सदाशिव के किरदार में जमे हैं। उनका अभिनय देख लगता है कि उन्होंने काफी मेहनत की है। बहुत समय के बाद उनकी अभिनय प्रतिभा निखर कर आई है। पार्वती के रूप में कृति सैनन प्रभावित करती हैं। वह सुंदर भी लगी हैं और गरिमामय भी। इस फिल्म के जरिये वे अपने अभिनय की विविधता को दिखाती हैं। संजय दत्त भी ठीक हैं। उनका गेटअप ठीक है, लेकिन उनकी संवाद अदायगी किरदार की जरूरतों को पूरा नहीं कर पाती। नजीब के रूप में मंत्रा अपने अभिनय से चौंकाते हैं। उन्होंने किरदार के शातिरपने को बखूबी उतारा है। नानाजी पेशवा के रूप मोहनीश बहल और उनकी महत्वाकांक्षी पत्नी गोपिकाबाई के किरदार में पद्मिनी कोल्हापुरे का अभिनय भी अच्छा है। हालांकि दोनों की भूमिकाएं छोटी हैं।
शुजाउद्दौला के रूप में कुणाल कपूर बहुत जमे हैं। अवध के नवाब की छवि जो मन में उभरती है, वह उसके काफी करीब लगे हैं। फिल्म में सबसे प्रामाणिक गेटअप उन्हीं का लगता है। जीनत अमान की भूमिका बहुत छोटी है। इब्राहिम खां गार्दी के किरदार के साथ नवाब शाह ने न्याय किया है। शमशेर बने साहिल सलाथिया का अभिनय भी अच्छा है। जाट सूरजमल (मनोज बख्शी) के किरदार को थोड़ा हल्का दिखाया गया है। सुहासिनी मूले (सदाशिवराव की दादी राधाबाई), एस.एस. जहीर (मुगल बादशाह आलमगीर द्वितीय) सहित बाकी सारे कलाकारों ने भी अपने किरदारों के साथ न्याय किया है।

यह एक अच्छी फिल्म है, देखने लायक।

(हिन्दुस्तान में 7 दिसंबर, 2019 को संपादित अंश प्रकाशित)

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