फिल्म ‘शिमला मिर्ची’ की समीक्षा

दिल तक पहुंच नहीं पाती यह प्रेम कहानी

राजीव रंजन

निर्देशक : रमेश सिप्पी

कलाकार: हेमा मालिनी, राजकुमार राव, रकुलप्रीत सिंह, शक्ति कपूर, किरण जुनेजा सिप्पी, कंवलजीत सिंह

दो स्टार

रमेश सिप्पी जैसे किसी बड़े फिल्मकार का नाम किसी फिल्म से जुड़ा हो, तो उससे उम्मीदें बंधती है। उसमें राजकुमार राव जैसे समर्थ अभिनेता, हेमा मालिनी जैसी दिग्गज अभिनेत्री और रकुलप्रीत सिंह जैसी संभावनाशील अभिनेत्री हो, तो उम्मीदें और बढ़ जाती हैं। फिल्म ‘शिमला मिर्च’ के साथ एक और अच्छी बात है कि कहानी का प्लॉट भी अच्छा था, लेकिन इसके बावजूद यह एक औसत से कमतर फिल्म बन कर रह गई।
अविनाश (राजकुमार राव) हर साल अपनी मां (नीता मोहिंद्रा), बुआ (किरण जुनेजा), बहन (प्रिया रैना) के साथ शिमला घूमने आता है। वह शिमला में रुकना नहीं चाहता, क्योंकि वह एक ही हिल स्टेशन पर घूम-घूम कर बोर हो गया है। उसके साथ एक और दिक्कत है। वह लड़कियों को अपने दिल की बताने में शर्माता है, इसलिए अभी तक उसकी कोई गर्लफ्रेंड नहीं बन पाई है। एक दिन शिमला में उसकी नजर नैना (रकुलप्रीत सिंह) पर पड़ती है। उसे देखते ही अविनाश को लगता है कि वही उसकी ड्रीमगर्ल है। उसकी नजदीकियां पाने के लिए वह शिमला में ही रुकने का फैसला करता है और नैना के कैफे में नौकरी कर लेता है। वह अपने दिल की बात नैना को जुबां से नहीं बता पाता, इसलिए चिट्ठी के जरिये अपनी भावनाएं उसे बताने की कोशिश करता है। वह नैना को एक चिट्ठी लिखता है और चुपके से उसकी टेबल पर रख देता है। नैना समझ नहीं पाती कि चिट्ठी किसने लिखी है। वह उसे डस्टबिन में फेंक देती है कि अचानक उसे एक ख्याल आता है और वही चिट्ठी वह अपनी मां रुक्मिणी (हेमा मालिनी) को भेज देती है।
रुक्मिणी को उसका पति तिलक (कंवलजीत सिंह) छोड़ कर चला गया है, लेकिन वह अभी भी उसके आने की उम्मीद लगाए बैठी है। नैना उसे बार-बार जिंदगी में आगे बढ़ने की सलाह देती है, लेकिन रुक्मिणी अतीत में ही अटकी हुई है। जब उसे वह चिट्ठी मिलती है, तो वह जिंदगी फिर से शुरू करने के सपने देखने लगती है। इसके बाद अविनाश, नैना और रुक्मिणी की जिंदगी में हास्यास्पद परिस्थितियां पैदा हो जाती हैं।

‘शिमला मिर्च’ एक रोमांटिक कॉमेडी फिल्म की तरह बनाई गई है और कहानी का प्लॉट भी संभावनाओं से भरा था। इसके एक बेहतर फिल्म के रूप में विकसित होने की पूरी संभावनाएं मौजूद थीं। लेकिन दो घंटे की इस फिल्म की पटकथा में दम नहीं है। फिल्म के अति साधारण प्रस्तुतीकरण ने एक अच्छी कहानी की संभावनाओं को समाप्त कर दिया। निर्देशन भी बहुत साधारण है, लिहाजा यह प्रेम कहानी दिल को छू नहीं पाती है। बस आंखों के सामने से एक बादल के टुकड़े-सी गुजर जाती है, दर्शकों के तन-मन को भिगो नहीं पाती। फिल्म में एक दृश्य है- रकुलप्रीत को पहली बार देखते ही राजकुमार राव के दिल में तीर आकर धंस जाता है। वह तीर सिर्फ पर्दे तक ही सीमित रह जाता है, दर्शकों के दिल में नहीं पहुंच पाता।
इस फिल्म में कॉमेडी भी हंसा पाने में असफल है। दरअसल पात्रों को ठीक से गढ़ा नहीं गया है, खासकर रुक्मिणी का किरदार बहुत कमजोर गढ़ा गया है। कई बार तो वह हास्यास्पद-सी लगती है। 2015 में पूरी हो चुकी यह फिल्म पांच साल बाद रिलीज हुई है। हो सकता है, कुछ इस वजह से भी यह असर पैदा न कर पाई हो, लेकिन इसकी मुख्य कमजोरी पटकथा और निर्देशन है। ‘सीता और गीता’, ‘शोले’ और ‘शान’ जैसी बड़ी फिल्मों तथा ‘बुनियाद’ जैसे बेहतरीन धारावाहिक के निर्देशक रमेश सिप्पी ने करीब 25 साल बाद किसी फिल्म का निर्देशन किया है, लेकिन इसमें वह अपनी परछाई भी नजर नहीं आते। गीत-संगीत भी याद रखने लायक नहीं है। सिनेमेटोग्राफी ठीक है, हालांकि शिमला की प्राकृतिक सुंदरता उभर कर नहीं आ पाती। एडिटिंग भी बेहतर हो सकती थी।
राजकुमार राव अच्छे अभिनेता हैं और इस फिल्म में भी उनका अभिनय अच्छा है। वह अपने किरदार को बढ़िया से निभाने में सफल रहे हैं। हेमा मालिनी का किरदार ठीक से नहीं गढ़ा गया है और वह अपने अभिनय से प्रभावित भी नहीं कर पातीं। उनकी संवाद अदायगी उनके अभिनय का कमजोर पक्ष है। रकुलप्रीत सुंदर लगी हैं और अभिनय से प्रभावित भी करती हैं। उनमें संभावनाएं हैं और वे बढ़िया फिल्मों का चयन करें, फिल्मकार उन्हें अच्छे किरदार दें, तो अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा सकती हैं। कैफे के मैनेजर कैप्टन अंकल के रूप में शक्ति कपूर भी असर नहीं डाल पाते। उनका वहीं पुराना अंदाज है और किरदार में भी दम नहीं है। कंवलजीत का अभिनय ठीक है। उनके हिस्से जितने भी दृश्य आए हैं, उनमें वह ठीक लगे हैं। किरण जुनेजा, नीता मोहिंद्रा और दादी के रूप में कमलेश गिल का अभिनय भी ठीक है। बाकी कलाकारों का अभिनय भी ठीकठाक हैं। एकाध दृश्यों को छोड़ दें, तो यह फिल्म ज्यादातर दृश्यों में प्रभावित नहीं कर पाती। पहला हाफ सुस्त है। इसमें फिल्म कोई उत्सुकता ही नहीं जगा पाती। सब कुछ बहुत प्रत्याशित है। कोई भी यह बता सकता है कि आगे क्या होने वाला है। मध्यांतर के बाद फिल्म थोड़ी ठीक लगी है, लेकिन क्लाइमैक्स अगर बेहतर होता, तो यह कुछ प्रभाव छोड़ सकती थी।

(हिन्दुस्तान में 4 जनवरी, 2020 को संपादित अंश प्रकाशित)

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