एक पढ़े-लिखे आतंकवादी की कहानी

फिल्म "ओमेर्ता" की समीक्षा

राजीव रंजन

कलाकार: राजकुमार राव, राजेश तैलंग, केवल अरोड़ा, टिमोथी रयान हिकरनेल

निर्देशक: हंसल मेहता

निर्माता: नाहिद खान

स्टार- 2.5 (ढाई)

निर्देशक हंसल मेहता और अभिनेता राजकुमार राव को एक-दूसरे का साथ बहुत पसंद है। 2013 में ‘शाहिद’ से लेकर 2018 में ‘ओमेर्ता’ तक पिछले पांच सालों में दोनों ने चार फिल्में साथ-साथ कर ली हैं और पांचवीं का एलान भी कर दिया है। दोनों की ताजा फिल्म ‘ओमेर्ता’ पाकिस्तानी मूल के एक ब्रिटिश आतंकवादी अहमद उमर सईद शेख के जीवन पर आधारित है। इसमें 1994 में भारत में विदेशी नागरिकों के अपहरण, 1999 में कंधार विमान अपहरण के बाद तीन आतंकवादियों की रिहाई (जिसमें उमर भी शामिल था), 9/11 (11 सितंबर 2001 को अमेरिका पर आतंकवादी हमला), पाकिस्तान में अमेरिकी पत्रकार डेनियल पर्ल की हत्या और 2008 में मुंबई पर आतंकवादी हमले की घटनाओं को दिखाया गया है।


कुछ बातें पहले ही साफ कर देते हैं, ‘ओमेर्ता’ शब्द का उमर नाम से कोई लेना-देना नहीं है। यह एक इटालियन शब्द है, जिसका अर्थ है खामोशी। एक साजिश भरी खामोशी, जो अपराधी जांच अधिकारियों के सामने अख्तियार कर लेते हैं, जब वे अपराधी से जांच के लिए पूछताछ कर रहे होते हैं। इसका इस्तेमाल माफिया की दुनिया में किया जाता है। दूसरी बात, यह पूरी तरह से हिंदी फिल्म नहीं है। करीब 95 मिनट की यह फिल्म आधे से ज्यादा अंग्रेजी में है। तीसरी, यह फीचर फिल्म कम, डॉक्यूड्रामा ज्यादा लगती है। इसे ‘मास’ के लिए नहीं बनाया गया है, बल्कि एक सीमित दर्शक वर्ग के लिए बनाया गया है। यह वर्ग सिर्फ मनोरंजन के लिए फिल्में नहीं देखता, बल्कि अपनी बौद्धिक प्यास को शांत करने के लिए भी फिल्में देखता है।


अहमद उमर सईद शेख (राजकुमार राव) एक पढ़ा-लिखा जहीन नौजवान है। वह बोस्निया में अपने मुस्लिम भाई-बहनों पर हो रहे अत्याचारों से बहुत दुखी है। वह उनकी मदद करना चाहता है और अपनी भावनाएं लंदन के एक मौलाना से साझा करता है। इसके बाद उसका ब्रेनवॉश शुरू किया जाता है और फिर ट्रेनिंग देकर एक बेहद खुंखार आतंकवादी बना दिया जाता है। उसके पिता सईद शेख (केवल अरोड़ा) उसे समझाने की कोशिश करते हैं, लेकिन बाद में उसके सामने हार मान लेते हैं। ट्रेनिंग के बाद उमर बोस्निया में काम करने की बजाय कश्मीर के उद्देश्य के लिए काम करने लगता है, क्योंकि उसे लगता है कि कश्मीर में भी उसकी कौम के साथ बोस्निया से कम अत्याचार नहीं हो रहे हैं। वह कई बड़ी आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देता है और दुनिया के सबसे खुंखार आतंकवादियों में उसकी गिनती होने लगती है। डेनियल पर्ल की हत्या के आरोप में 2002 में उसे गिरफ्तार किया जाता है और मौत की सजा दी जाती है। हालांकि अभी तक उस सजा की तामील नहीं हो सकी है। फिल्म इसी नोट के साथ खत्म होती है।

फिल्म में निर्देशक हंसल मेहता ने घटनाओं को ‘जो है, जैसा है’ की तर्ज पर दिखाने की कोशिश की है। अपनी तरफ से उन्होंने बहुत कुछ जोड़ने-घटाने की कोशिश नहीं की है। फिल्म को देख कर लगता है कि काफी शोध किया गया है। उमर के ब्रेनवाश और उसको पाकिस्तानी हुकूमत द्वारा संरक्षण दिए जाने के दृश्यों को बहुत प्रामाणिकता से प्रस्तुत किया गया है। दिल्ली विश्वविद्यालय के नॉर्थ कैंपस की दीवारों पर बहुत पहले एक नारा पढ़ा था, ‘तालिबान अभिशाप है, अमेरिका उसका बाप है’। ‘ओमेर्ता’ पर भी इसी सिद्धांत पर आगे बढ़ती है। बतौर निर्देशक हंसल मेहता ने बहुत संतुलित होने की कोशिश की है। वह कहीं भी उमर कोे महिमामंडित नहीं करते हैं। लेकिन फिल्म में जाने या अनजाने उसका किरदार कुछ इस तरह उभरता है कि भले उससे सहानुभूति न हो, लेकिन वह बहुत ज्यादा या वैसा खुंखार भी नहीं लगता (डेनियल पर्ल की हत्या वाले दृश्य को छोड़ कर), जिस तरह की घटनाएं उसने अंजाम दी थीं। भले ही यह गैर-इरादतन हो, लेकिन फिल्म के कई दृश्यों में यह बात भी निकल कर आती है कि आतंकवाद के जन्म के लिए मुख्य रूप से पश्चिमी जगत जिम्मेदार है।

बहरहाल, फिल्म बहुत सधे तरीके से बनाई गई है। मनोरंजन के लिए जबर्दस्ती कोई मसाला नहीं ठूंसा गया है। बतौर निर्देशक हंसल मेहता ने अपनी पकड़ पूरी फिल्म पर बनाए रखी है। फिल्म की गति काफी धीमी है। राजकुमार राव ने एक बार फिर से बहुत अच्छा अभिनय किया है। उन्होंने इस किरदार में उतरने के लिए काफी मेहनत की है, जो फिल्म में दिखती भी है। केवल अरोड़ा का अभिनय भी अच्छा है। डेनियल पर्ल के रूप में टिमोथी और पाकिस्तानी जेनरल महमूद के रूप में राजेश तैलंग ने भी अपनी भूमिकाओं से न्याय किया है। बाकी किरदार भी कमोबेश ठीक हैं। फिल्म की सिनमेटोग्राफी अच्छी है। गीत-संगीत कुछ खास नहीं है।

सिनेमाई दृष्टि से कुछ फिल्में अच्छी बनी होती हैं, लेकिन वे किस उद्देश्य से बनाई गई हैं, यह बात समझ में नहीं आती। कोई भी फिल्मकार फिल्म बनाता है तो उसके मन में यह बात साफ होती हैं कि वह क्यों बना रहा है- लोगों का मनोरंजन के लिए या किसी मुद्दे को उठाने के लिए। जाहिर है, इसमें एक पक्ष कारोबार का भी होता है। लेकिन जब हंसल मेहता की ‘ओमेर्ता’ देख कर बाहर निकलते हैं तो यह तय कर पाना मुश्किल होता है कि उन्होंने फिल्म किसलिए बनाई है!

(Livehindustan.com में 4 मई और हिन्दुस्तान में 5 मई 2018 को प्रकाशित)

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