दुनिया को ताकत दिखाने की कहानी
फिल्म परमाणु की समीक्षा
कलाकार: जॉन अब्राहम, बोमन ईरानी, डायना पेंटी, विकास कुमार, योगेंद्र टिक्कू, दर्शन पंड्या, अनुजा साठे
निर्देशक: अभिषेक शर्मा
तीन स्टार (3 स्टार)
‘पोखरण 2’ भारत के सामरिक इतिहास में एक बड़ा मील का पत्थर
है। 1998 में राजस्थान के
पोखरण में हुए भारत के इस दूसरे परमाणु परीक्षण ने देश को एक पूर्ण परमाणु शक्ति के
रूप में स्थापित कर दिया था। सबसे खास बात कि इस परमाणु परीक्षण की दुनियों को जरा
भी खबर नहीं लगी। अमेरिका का बेहद सक्षम खुफिया तंत्र भी भारत के इस परमाणु परीक्षण
के बारे में कुछ पता नहीं लगा सका। भारत की इस कामयाबी से बौखलाए अमेरिका ने भारत पर
कठोर आर्थिक प्रतिबंध भी लगाए, लेकिन उसका नतीजा बेअसर ही रहा।
इस तरह की कामयाबी
कोई एक दिन या एक वर्ष का परिणाम नहीं होती। ऐसे लक्ष्यों को प्राप्त करने में दूरदर्शी
योजना, रणनीति, वर्षों का परिश्रम, निष्ठा, दृढ़संकल्प की जरूरत होती। इसमें कई तरह के व्यवधान,
समस्याएं भी सामने आती हैं
और कई बार असफलता भी हाथ लगती है, लेकिन जब नेतृत्व दृढ़संकल्पित होता है तो सब बाधाएं पीछे छूट जाती हैं। जॉन अब्राहम
की फिल्म ‘परमाणु’ पोखरण 2 की इस पूरी प्रक्रिया और पृष्ठभूमि को सफलतापूर्वक दर्शकों
के सामने रखती है।
फिल्म शुरू होती 1995 से। चीन ने एक शक्तिशाली परमाणु परीक्षण किया है।
उसका एक बम भारत के किसी भी शहर को जमींदोज कर सकता है। दूसरी ओर पाकिस्तान को चीन
और अमेरिका द्वारा आर्थिक व सामरिक सहायता भी भारत के लिए चिंता का विषय है। सोवियत
संघ के विघटन के बाद विश्व में भारत का कोई भरोसेमंद साथी नहीं है। इसी चिंताजनक माहौल
में जिम्मेदार पदों पर बैठे कुछ लोग नई दिल्ली में विचार-विमर्श में जुटे हैं। लेकिन
ऐसा लगता है कि वह विचार-विमर्श कम, और टाइम पास करने की कवायद ज्यादा कर रहे हैं। इसी बीच एक आईएएस
अफसर अश्वत्थ रैना (जॉन अब्राहम) सुझाव देता है कि भारत को भी परमाणु परीक्षण कर अपनी
ताकत का परिचय देना चाहिए। वह इस बारे में एक रिपोर्ट भी तैयार करके लाया है,
लेकिन सभी लोग इस बात को हवा
में उड़ा देते हैं। थोड़ी देर बार बाद प्रधानमंत्री के सचिव उसे संक्षेप में रिपोर्ट
तैयार करने को कहते हैं। अश्वत्थ ऐसा ही करता है, लेकिन उसे टीम में शामिल किए बिना वह परीक्षण करने
की तैयारी कर ली जाती है। परीक्षण असफल हो जाता है और अश्वत्थ को बलि का बकरा बना दिया
जाता है। वह दिल्ली छोड़ कर अपनी पत्नी (अनुजा साठे) और बच्चे प्रह्लाद (मास्टर आरुष
नंद) के साथ मसूरी चला आता है।
तीन साल बाद 1998 में सरकार बदलती है और नई सरकार फिर से परमाणु
परीक्षण की दिशा में काम शुरू करती है। भारत सरकार के प्रधान सचिव हिमांशु शुक्ला
(बोमन ईरानी) अश्वत्थ का पता लगा कर फिर से इस मिशन से जुड़ने के लिए कहते हैं। उसे
मिशन का मुखिया बना दिया जाता है। वह अपनी एक टीम तैयार करता है, जिसमें कैप्टन अम्बालिका (डायना पेंटी),
मेजर प्रेम सिंह (विकास कुमार),
परमाणु वैज्ञानिक डॉ. विराफ
वाडिया (आदित्य हितकारी), डीआरडीओ के वैज्ञानिक डॉ. नरेश सिन्हा (योगेंद्र टिक्कू) और एक अंतरिक्ष वैज्ञानिक
शामिल हैं। इनका कूट नाम (कोड नेम) पांडवों के नाम पर युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव रखा जाता है। अश्वत्थ कृष्ण की भूमिका में है। वह इस पूरे मिशन की योजना
बनाता है और सब उसमें युद्ध स्तर पर जुट जाते हैं। उनकी कोशिशों को नाकाम करने में
आईएसआई का एक एजेंट सज्जन (दर्शन पंड्या) और अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए का एजेंट
डेनियल (मार्क बेनिंगटन) भी लगा है।...
11 और 13 मई 1998 को भारत ने जब ये बेहद शक्तिशाली परमाणु परीक्षण
किए थे, तब से लेकर आज तक
दो दशक बीत चुके हैं। इन दो दशकों में उस वर्ष और उसके आगे-पीछे के एक-दो वर्षों में
पैदा हुई पीढ़ी जवान हो चुकी है। उस पीढ़ी को अपने देश की इस उपलब्धि के बारे में पता
होगा, गर्व होगा और सम्मान
भी होगा। लेकिन उस पीढ़ी और उसके बाद की पीढ़ी को उस उत्तेजना, उन कठिन परिस्थितियों के बारे में वैसी अनुभूति
शायद नहीं होगी, जैसी उस वक्त लोगों
को हुई थी। ‘परमाणु’ उस भाव को सेल्यूलाइड पर उकेरने का काम करती है।
निर्देशक अभिषेक शर्मा अपने निर्देशन से प्रभावित करते हैं। पटकथा भी ठीक है,
हालांकि कुछ जगहों पर कुछ
अनावश्यक चीजें भी हैं, जो फिल्म के प्रभाव को हल्का करती हैं। कुछ जगहों पर गाड़ी पटरी से उतरती भी है,
लेकिन तुरंत पटरी पर वापस
भी आ जाती है। फिल्म दर्शकों को बांधे रखती है। फिल्म को शुष्क होने से बचाने के लिए
निर्देशक और लेखक ने कहीं-कहीं बॉलीवुड उपायों का सहारा भी लिया है। खासकर क्लाईमैक्स
में। पहले हाफ में फिल्म ज्यादा कसी हुई है।
जॉन अब्राहम ने अश्वत्थ
की भूमिका बढ़िया निभाई है, हालांकि भावनात्मक दृश्यों में वे उतने प्रभावी नहीं लगते। डायना पेंटी ने अपना
किरदार खूबसूरती से निभाया है। उनका काम भी ठीक है और वे सुंदर भी लगी हैं। बोमन ईरानी
हमेशा की तरह अच्छे लगे हैं। अनुजा साठे ने अपनी भूमिका के साथ पूरा न्याय किया है।
अपने किरदार के हर पहलू को उभारने में वह सफल रही हैं। विकास कुमार भी मेजर के किरदार
में जमे हैं। फिल्म के बाकी सभी कलाकार भी ठीक हैं। गीत-संगीत साधारण है। फोटोग्राफी
अच्छी है।
यह फिल्म देख कर कई
बार ‘चक दे इंडिया’ की याद आती है और अंत में ‘जो जीता वही सिकंदर’ की भी। दर्शकों को परिणाम पता है कि क्या होगा,
लेकिन अगर उनकी सांसों का
उतार-चढ़ाव तेज हो रहा है तो यह फिल्म की सफलता है। ‘परमाणु’ ऐसा कर पाने में सफल रही है। अगर किसी फिल्म के
क्लाईमैक्स में तालियां बजती हैं तो यह मानने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए कि फिल्म
ने दर्शकों से अपना रिश्ता बना लिया है। ‘परमाणु’ इस कसौटी पर भी खरी उतरती है। यह फिल्म एक आम हिंदुस्तानी में गर्व का भाव पैदा
करती है। निस्संदेह यह फिल्म देखने लायक है।
(हिन्दुस्तान में 26
मई 2018 को इस समीक्षा के संपादित अंश प्रकाशित हुए हैं।)
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