फिल्म ‘केदारनाथ’ की समीक्षा
फिल्म में नहीं, सारा में है दम
राजीव रंजन
निर्देशक: अभिषेक कपूर
कलाकार: सुशांत सिंह राजपूत, सारा अली खान, नीतीश भारद्वाज, निशांत दहिया, पूजा
गौर, अल्का अमीन, सोनाली सचदेव
ढाई स्टार (2.5 स्टार)
पंद्रह जून, 2013 को आई भीषण बाढ़ ने उत्तराखंड के केदारनाथ में बेतरह तबाही मचाई थी। इसमें सैकड़ों स्थानीय लोगों के साथ हजारों तीर्थयात्री काल के गाल में समा गए। हजारों घर, दुकानें, होटल नेस्तनाबूद हो गए। इसके बाद बहस छिड़ गई कि पहाड़ी क्षेत्रों का अत्यधिक व्यवसायीकरण प्रकृति के प्रकोप का कारण बन रहा है। इसी मसले की पृष्ठभूमि में प्रेम कहानी को पिरोते हुए हुए निर्देशक अभिषेक कपूर ने अपनी फिल्म ‘केदारनाथ’ का ताना-बाना बुना है। और हां, सेकुलरिज्म भी इस ताने-बाने के एक प्रमुख धागा है।
मंसूर (सुशांत सिंह राजपूत) अपनी मां (अल्का अमीन) के साथ केदारनाथ घाटी में रहता है और पिट्ठू का काम करता है। वह हिन्दू तीर्थ यात्रियों को केदारनाथ के दर्शन करवाता है। उनसे ज्यादा पैसे नहीं लेता, बल्कि कुछ रियायत ही कर देता है। उसकी मां इस बात से नाराज रहती है। मंदाकिनी उर्फ मुक्कु (सारा अली खान) भी वहीं रहती है। उसके पिता पंडित बृराज (नीतीश भारद्वाज) पुजारी हैं और उनका गेस्ट हाउस भी है। कुल्लू (निशांत दहिया) मुक्कु का मंगेतर है, पर वह उसे पसंद नहीं करती। दरअसल कुल्लू की शादी मुक्कू की बड़ी बहन बृंदा (पूजा गौर) से होने वाली थी, लेकिन बाद में उसे मुक्कु पसंद आ गई और पंडित जी ने इस रिश्ते के लिए भी हां कर दी।
एक दिन मुक्कु और मंसूर टकराते हैं और दोनों में प्यार हो जाता है। जैसाकि हिंदी फिल्मों में अक्सर होता है, दोनों के प्यार के बीच धर्म की दीवार आ जाती है। पंडित जी, मुक्कु के मंगेतर कुल्लू और पंडित बिरादरी के लोगों को यह बात बहुत नागवार गुजरती है। मंसूर को केदारनाथ घाटी छोड़ कर जाने का फरमान सुना दिया जाता है। और इसी बीच 15 जून 2013 को प्रकृति घाटी में कहर बरपा देती है। मंसूर अपनी प्रेमिका मुक्कु को बचाने के लिए अपनी जिंदगी दांव पर लगा देता है...
फिल्म के नाम से ऐसा लग सकता है कि इसमें धर्म से जुड़ी कोई बात होगी, लेकिन धर्म यहां सिर्फ संदर्भ के तौर पर है। धर्म से इसका बस इतना ही नाता है कि नायिका के पिता पुजारी हैं और कहानी हिंदुओं के सबसे अधिक पवित्र तीर्थस्थानों में से एक केदारनाथ में घटती है। इससे ज्यादा कुछ नहीं। मूल रूप से यह एक प्रेम कहानी है और बेहद सामान्य प्रेम कहानी है, जिसे आप पहले भी अनगिनत बॉलीवुड फिल्मों में देख चुके हैं। प्रकृति से छेड़छाड़ के विषय को भी बस संदर्भ के रूप में इस्तेमाल किया गया है। रही बात सेकुलरिज्म की, तो जब उसे दिमाग का इस्तेमाल कर बताने की कोशिश की जाती है, तब वह अपना प्रभाव खो देता है। हालांकि निर्देशक अभिषेक कपूर के पास पूरा मौका था कि इसे वह दृश्यों के जरिये, भावों के जरिये दिखा सकते थे। शुरू के एकाध दृश्यों में उन्होंने ऐसा किया भी, लेकिन बाद में उन्होंने घिसे-पिटे संवादों का सहारा लेकर इस संभावना को खत्म कर दिया।
पटकथा कमजोर है और मुक्कु-मंसूर की लव स्टोरी को प्रभावशाली तरीके से नहीं दिखा पाती। कुछ दृश्य जरूर अच्छे लगते हैं, लेकिन फिल्म के प्रवाह में निरंतरता नहीं है। मुक्कु जिस तरीके से अपने पिताजी से बात करती है, वह थोड़ा मनोरंजनक तो है, लेकिन अस्वाभाविक भी लगता है। एक धार्मिक पृष्ठभूमि वाले शहर में एक पुजारी के परिवार में इस तरह के संवाद यथार्थ नहीं प्रतीत होते। उसी तरह मुक्कु का मंगेतर कुल्लु जिस तरह अपने होने वाले ससुर से बात करता है, वह भी खटकता है। पटकथा में कई चीजों को इस तरह घुसाया गया है कि वे स्वाभाविक नहीं लगतीं। ऐसा लगता है, उन्हें जबर्दस्ती डाला गया है। इस वजह से फिल्म की अपील कमजोर हुई है। ये ‘रॉकऑन’ और ‘काय पो चे’ वाले अभिषेक की फिल्म नहीं लगती। सबसे ज्यादा निराश किया है संगीतकार अमित त्रिवेदी ने। फिल्म की पृष्ठभूमि और मूड के हिसाब से एक भी गाना दे पाने में वह असफल रहे हैं। उत्तराखंड के लोक संगीत की थोड़ी भी झलक इस फिल्म के संगीत में नहीं मिलती।
इस फिल्म की तीन खासियते हैं। सिनमेटोग्राफी, वीएफएक्स और सारा अली खान। ड्रोन की सहायता से फिल्माये गए केदारनाथ घाटी के दृश्य आंखों को भले लगते हैं। पहाड़ों का प्राकृतिक सौंदर्य मन को लुभाता है। क्लाइमैक्स में बाढ़ के कहर के दृश्य उस वास्तविक त्रासदी का आभास कराते हैं। और सारा अली खान ने अपने हिस्से का काम शानदार ढंग से किया है। उनकी देह-भाषा इतनी सहज और अभिनय इतना स्वाभाविक है कि लगता ही नहीं, यह उनकी पहली फिल्म है। उनकी अपीयरेंस और बॉडी लैंग्वेज में मां अमृता सिंह की काफी झलक मिलती है। उनमें बहुत संभावनाएं नजर आती हैं। सुशांत सिंह राजपूत का अभिनय साधारण है। वह कई जगहों पर अभिनय करने का प्रयास करते नजर आते हैं। इस फिल्म में जैसा काम उन्होंने किया है, वह उससे बहुत बेहतर अभिनेता हैं।
‘एम.एस. धोनी’ के बाद वह ट्रैक से उतरे हुए नजर आते हैं। नीतीश भारद्वाज का काम ठीक है, जितने अवसर उनके पास इस फिल्म में थे, उसे उन्होंने ठीक से भुनाया है। हालांकि अगर पटकथा और निर्देशक का साथ मिलता, तो वह और बेहतर कर सकते थे। निशांत दहिया अपने किरदार में ठीक लगे हैं। बृंदा के रूप में पूजा गौर का काम अच्छा है, उनके एक्सप्रेशंस ठीक हैं। मुक्कु की मां लता के रूप में सोनाली सचदेव का अभिनय भी अच्छा है। अल्का अमीन भी अपने किरदार में जंची हैं।
‘केदारनाथ’ की जैसी चर्चा थी और इसका ट्रेलर रिलीज होने के बाद जिस तरह की उम्मीदें बंधी थीं, फिल्म उन चर्चाओं और उम्मीदों पर खरी नहीं उतरती। सारा अली खान, कुछ खूबसूरत दृश्यों और क्लाइमैक्स के विजुअल इफेक्ट्स के लिए फिल्म देखना चाहें, तो देख सकते हैं।
(8 दिसंबर 2018 को हिन्दुस्तान में संक्षिप्त अंश प्रकाशित)
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