फिल्म ‘मेरे प्यारे प्राइम मिनिस्टर’ की समीक्षा

टॉयलेट: एक मां-बेटा कथा

राजीव रंजन

निर्देशक: राकेश ओमप्रकाश मेहरा

कलाकार: अंजलि पाटिलओम कनौजियाअतुल कुलकर्णीमकरंद देशपांडे

दो स्टार (2 स्टार)

कई फिल्में ऐसी होती हैंजो गंभीर बात कहती हैंलेकिन गंभीरता से नहीं कह पातीं। राकेश ओमप्रकाश मेहरा निर्देशित मेरे प्यारे प्राइम मिनिस्टर’ भी एक ऐसी ही फिल्म है। यह खुले में शौच की मजबूरी के कारण महिलाओं के साथ होने वाले यौन अपराधों की गंभीर समस्या को उठाती है। लेकिन दिक्कत यह है कि फिल्म इतनी बिखरी हुई है कि उसका कोई आकार ही नहीं बन पाता।
सरगम (अंजलि पाटिल) मुंबई की एक झोपड़पट्टी में अपने 8-9 साल के बेटे कन्हैया उर्फ कन्नु (ओम कनौजिया) के साथ रहती है। उनके और बस्ती के दूसरे घरों में भी स्मार्ट फोन हैटीवी है और सामान्य जीवन के लिए जरूरी दूसरी चीजें भीपर टॉयलेट नहीं है। यहां तक कि पूरी बस्ती में एक भी टॉयलेट नहीं है। लोग पहाड़ी परनाले के पास टॉयलेट के लिए जाते हैं। औरतों को तो उजाला होने के पहले ही जाना पड़ता है। एक दिन सरगम को शौच अकेले जाना पड़ता है और उसका रेप हो जाता है। छोटे कन्नु को लगता है कि अगर घर में टॉयलेट होतातो उसकी मां के साथ बुरा नहीं होता। वह टॉयलेट बनाने में जुट जाता हैलेकिन उसकी मेहनत आंधी-पानी में बिखर जाती है। फिर वह प्राइम मिनिस्टर को चिट्ठी लिखता और उन्हें देने के लिए अपने दो दोस्तों के साथ दिल्ली भी चला जाता है...
निश्चित रूप से इस फिल्म के जरिये राकेश मेहरा एक बेहद जरूरी और संवेदनशील मुद्दा उठाते हैंलेकिन कमजोर पटकथा इस अच्छे विषय पर पानी फेर देती है। वैसे कई बार कमजोर पटकथा को सधा हुआ निर्देशन थोड़ा संभाल लेता हैलेकिन मेहरा का निर्देशन भी पटकथा जैसा ही हैइसलिए फिल्म दिल को नहीं छू पाती। बस कुछ ही सीन हैंजो थोड़ी संवेदना जगा पाते हैं। खासकर अंजलि पाटिल और ओम कनौजिया के। इस फिल्म में एक ही बात थोड़ी उभर कर आ पाती हैऔर वह है एक मां-बेटे की बॉन्डिंग। झोपड़पट्टी के दृश्य भी कुछ प्रामाणिक लगते हैं और कैमरा उस माहौल को कैप्चर कर पाने में सफल रहा है। पौने दो घंटे की इस फिल्म में कई गैर-जरूरी दृश्य हैंजिनके न होने से कोई फर्क नहीं पड़तासिवा फिल्म की लंबाई कम हो जाने के।

अंजलि पाटिल का अभिनय अच्छा हैवह प्रभावित करती हैं। अपने किरदार के हर पहलू को उभार पाने में वह सफल रही हैं। मुख्य बाल कलाकार ओम कनोजिया का अभिनय भी अच्छा हैलेकिन उनका किरदार अपनी उम्र के लिहाज से कुछ ज्यादा परिपक्व लगता हैइसलिए कई बार वह थोड़ा बनावटी भी लगने लगता है। फिल्म के बाकी तीन बाल कलाकारों का अभिनय भी अच्छा है। उनकी मासूमियत अच्छी लगती है। मकरंद देशपांडे के अभिनय में कोई नयापन नहीं हैहां लुक जरूर नया हैबिना मूंछ-दाढ़ी का। अतुल कुलकर्णी बस एक सीन में हैंलेकिन उसमें ही असर छोड़ जाते हैं। दूसरे कलाकार भी ठीक हैं।
फिल्म का इसके नाम से कोई खास लेना-देना नहीं है और जिस चीज से लेना-देना हैवह इसमें कुछ खास प्रभावी अंदाज में दिखाया नहीं गया है। यह फिल्म गर्मी में हवा के उस झोंके की तरह हैजो बस बदन को छूकर गुजर जाती हैठंडक का अहसास नहीं देती।
(हिन्दुस्तान में 16 मार्च 2019 को सम्पादित अंश प्रकाशित)

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