फिल्म ‘रोमियो अकबर वॉल्टर’ की समीक्षा
रोमांचित नहीं करता तीन नामों वाला ये जासूस
राजीव रंजन
निर्देशक: रॉबी ग्रेवाल
कलाकार: जॉन अब्राहम, मौनी रॉय, सिकंदर खेर, जैकी श्रॉफ, रघुबीर यादव
दो स्टार (2 स्टार)
जॉन अब्राहम पिछले कुछ समय से देशभक्ति फिल्मों की ओर काफी झुके हैं। उनकी पिछली दोनों फिल्में ‘परमाणु’ और ‘सत्यमेव जयते’ भी देशभक्ति के जज्बे से भरपूर थीं। लेकिन क्या सिर्फ देशप्रेम का तत्व ही किसी फिल्म को अच्छा बना सकता है, सफलता की गारंटी हो सकता है? ‘रोमियो अकबर वाल्टर’ को देख कर तो ऐसा नहीं कहा जा सकता।
रोमियो अली (जॉन अब्राहम) बैंक में काम करता है और अपनी मां वहीदा (अल्का अमीन) के साथ एक सामान्य जीवन जीता है। भारत की खुफिया एजेंसी ‘रिसर्च एंड एनालिसिस विंग’(रॉ) के प्रमुख श्रीकांत राय (जैकी श्रॉफ) की नजर उस पर पड़ती है। वह रोमियो में एक अच्छा रॉ एजेंट होने की संभावनाएं देखते हैं और उसे प्रशिक्षण देकर रॉ एजेंट अकबर मलिक के रूप पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर भेज देते हैं। वह एक पाकिस्तानी हथियार डीलर इशाक अफ्रीदी (अनिल जॉर्ज) का भरोसा जीत लेता है और उसके साथ काम करने कराची आ जाता है। पूर्वी पाकिस्तान के मसले पर भारत और पाक युद्ध के मुहाने पर खड़े हैं। इसी के मद्देनजर अकबर पाकिस्तान से रॉ को अहम जानकारियां भेजता है। ऐसे ही एजेंटों द्वारा मुहैया कराई गई सूचनाओं की मदद से भारत युद्ध जीत जाता है और पूर्वी पाकिस्तान विश्व के नक्शे पर एक नए राष्ट्र बांग्लादेश के रूप में अस्तित्व में आता है।
सन 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में भारत की जीत में खुफिया एजेंटों की महत्वपूर्ण भूमिका पर पिछले साल ‘राजी’ आई थी। इस फिल्म को लोगों ने काफी पसंद किया और ये सुपरहिट रही। ‘रोमियो अकबर वाल्टर’ का केंद्रीय विषय भी यही है। लेकिन ‘राजी’ एक बेहतर पटकथा, शोध और तैयारी के साथ बनाई गई फिल्म थी। वहीं ‘रोमियो अकबर वॉल्टर’ एक अच्छी थीम पर आधी-अधूरी तैयारी के साथ बनाई गई फिल्म है। इस फिल्म की सबसे बड़ी खामी इसकी पटकथा है। कई ऐसी चीजें हैं, जिनके होने का कोई अर्थ समझ में नहीं आता। सब कुछ इतनी आसानी से होते दिखा दिया गया है कि दर्शक में कोई उत्सुकता ही पैदा नहीं होती। यह एक जासूसी थ्रिलर है, लेकिन इसमें थ्रिल नहीं के बराबर है।
फिल्म की गति भी धीमी है। एक जासूसी फिल्म में जो तनाव होना चाहिए, इस फिल्म में एकाध जगहों को छोड़ कर, और कहीं नजर नहीं आता। इस तरह की फिल्मों में बैकग्राउंड साउंड की भी अहम भूमिका होती है। अच्छा बैकग्राउंड संगीत फिल्म के प्रभाव को गहराई प्रदान करता है। इस फिल्म में यह भी एक कमजोर पक्ष है। गीत-संगीत साधारण है, हालांकि बैकग्राउंड स्कोर जितना निराश नहीं करता। अंत में जो ‘वंदे मातरम्’ बजता है, वह इस फिल्म का सबसे अच्छा नंबर है।
इस फिल्म में दो-तीन चीजें कुछ ठीक हैं। जॉन अब्राहम और अल्का अमीन के दृश्य कुछ संवेदना जगाते हैं। मां-बेटे की केमिस्ट्री अच्छी लगती है। फिल्म के सेट भी ठीक हैं और 70के दशक के कालखंड की अनुभूति कराते हैं। निर्देशक के रूप में रॉबी ग्रेवाल प्रभावित नहीं कर पाते। वह और लेखक किरदारों को ठीक से गढ़ पाने में असफल रहे हैं।
जॉन अब्राहम का अभिनय ठीक है और उन्होंने अपने किरदार के तीनों रूपों को ठीक से निभाया है, लेकिन उनकी सीमाएं हैं और वे नजर भी आती हैं। जैकी श्रॉफ भी ठीक लगे हैं,लेकिन उनकी संवाद अदायगी का अंदाज फिल्म में कुछ ऐसा है कि कई संवाद समझ में नहीं आते, खासकर जो अंग्रेजी में बोले गए हैं। मौनी रॉय के पास ज्यादा मौके नहीं थे और जो थे, उसे भी वह कायदे से भुना नहीं पाईं। हां, वह सुंदर जरूर लगी हैं। रघुवीर यादव अच्छे कलाकार हैं और उन्होंने अभिनय भी अच्छा किया है। इस फिल्म में सबसे ज्यादा प्रभावित करते हैं सिकंदर खेर। पाकिस्तानी फौजी अफसर खान के किरदार में वह जंचे हैं। लुक में भी,अभिनय में भी। अनिल जॉर्ज का अभिनय भी ठीक है। अल्का अमीन अपनी अदाकारी से असर छोड़ती हैं। बाकी कलाकार भी ठीक हैं। स्क्रिप्ट पर ठीक से काम नहीं किए जाने के कारण यह एक औसत से भी कम फिल्म बन कर रह गई।
(हिन्दुस्तान में 6 अप्रैल 2019 को प्रकाशित)
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