फिल्म सुपर 30 की समीक्षा

एक वास्तविक हीरो की मसालेदार दास्तां

राजीव रंजन

निर्देशक: विकास बहल

कलाकार: हृतिक रोशन, पंकज त्रिपाठी, मृणाल ठाकुर, आदेश श्रीवास्तव, नंदिश सिंह, वींरेद्र सक्सेना, विजय वर्मा, दीपाली गौतम

ढाई स्टार

किसी प्रसिद्ध व्यक्ति के जीवन पर आधारित फिल्म बनाते समय फिल्मकार के सामने कई चुनौतियां होती हैं। सबसे बड़ी चुनौती यह होती है कि प्रामाणिकता को बरकरार रखते हुए उसे दर्शकों के सामने इस तरह परोसा जाए कि न तो वह डॉक्यूमेंट्री लगे, और न ही घोर नाटकीयता का शिकार हो जाए। खासकर व्यक्ति जब जीवित होता है, तब यह चुनौती और बढ़ जाती है, क्योंकि सूचनओं की बाढ़ और सोशल मीडिया के इस दौर में उसके बारे में लोगों को बहुत कुछ पता होता है। सकारात्मक और नकारात्मक सारी सूचनाएं। इसलिए अच्छी स्क्रिप्ट और सटीकता बहुत जरूरी होती है। विकास बहल निर्देशित और हृतिक रोशन अभिनीत सुपर 30’ इस मामले में अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरती है।
प्रसिद्ध गणितज्ञ आनंद कुमार (हृतिक रोशन) एक निम्नवर्गीय परिवार से हैं। उनके पिता, जिन्हें वह प्यार से ईश्वर (वीरेंद्र सक्सेना) कहते है, एक पोस्टमैन हैं। आनंद गणित विषय में अद्भुत प्रतिभाशाली हैं और कठिन से कठिन से कठिन सवाल भी हल कर देते हैं। गणित के प्रति उनके जुनून का हाल यह है कि वह बीएयू की लाइब्रेरी में पढ़ाई करने के लिए हर हफ्ते पटना से बनारस जाते हैं। गणित की उनकी काबिलियत के आधार पर उनका दखिला कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में हो जाता है, लेकिन पैसे की कमी की वजह से वह पढ़ाई के लिए लंदन नहीं जा पाते। इस सदमे से उनके पिता का देहांत हो जाता है। पिता के गुजरने के बाद परिवार का खर्च चलाने के लिए उनकी मां कुसुम (दीपाली गौतम) पापड़ बनाती हैं और आनंद उसे बेचते हैं।
एक दिन आनंद की टक्कर लल्लन सिंह (आदेश श्रीवास्तव) से हो जाती है, जो खुद भी एक बहुत अच्छा गणित शिक्षक है और एक प्रसिद्ध कोचिंग सेंटर का प्रमुख है। आनंद उसके कोचिंग सेंटर में पढ़ाने लगते हैं। अपने पढ़ाने की शैली से वह बहुत लोकप्रिय हो जाते हैं और कोचिंग को बहुत फायदा होने लगता है। आंनद भी काफी पैसे कमाने लगते हैं। वह उस दुनिया में रमने लगते हैं कि एक दिन एक प्रतिभाशाली गरीब बच्चे से उनका सामना होता है, जो संसाधनों की कमी से पढ़ाई छोड़ने को मजबूर हो जाता है। आनंद को झटका लगता है और वह गरीब बच्चों को आईआईटी एंट्रेंस की नि:शुल्क कोचिंग देने का फैसला करते हैं और कोचिंग में पढ़ाना छोड़ कर अपना सेंटर शुरू कर देते हैं। लेकिन इस कारण उन्हें आर्थिक मुसीबतों से दो-चार होना पड़ता है। इस बीच उनकी प्रेमिका ऋतु (मृणाल ठाकुर) भी उनसे दूर हो जाती हैं। इस काम में आनंद का भाई प्रणव (नंदिश सिंह) पूरे जी-जान से साथ देता है। लल्लन के कोचिंग कारोबार को आनंद की इस पहल से काफी नुकसान पहुंचने लगता है। वह पूरी कोशिश करता है कि आनंद का सेंटर बंद हो जाए, पर सफल नहीं होता। फिर वह अपने आका शिक्षा मंत्री देवराज (पंकज त्रिपाठी) के निर्देश पर आनंद की हत्या कराने की कोशिश भी करता है।...
इस फिल्म की सबसे बड़ी कमी है कि इसे बेहद नाटकीय अंदाज में पेश किया गया है, जिससे यह आनंद की जीवनी कम, ठेठ मसाला फिल्म ज्यादा लगती है। कई बार दिमाग में यह बात आती है कि अगर आनंद कुमार अपने संकल्प को पूरा करने के लिए कुछ समर्थ बच्चों को पैसा लेकर पढ़ाते और उन पैसों से अपने सेंटर के लिए पैसों का इंतजाम करते, तो इसमें क्या बुराई थी? वैसे आर्थिक दिक्कतों को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया गया है, जिससे इसकी भावनात्मक अपील तो बढ़ जाती है, लेकिन प्रामाणिकता को नुकसान पहुंचा है। कहानी पटना की पृष्ठभूमि में है, पर एक भी सीन ऐसा नहीं है, जो पटना को स्थापित करता हो। कम से कम खजांची रोड, बहादुरपुर, कंकड़बाग के ही एक-दो सीन डाल देते, जो उस समय कोचिंग सेंटर का हब हुआ करते थे।

एक और बड़ी तथ्यात्मक त्रुटि (जान-बूझ कर या अनजाने में) यह है कि सुपर 30’ के सह-संस्थापक अभयानंद (पूर्व पुलिस महानिदेशक, बिहार) का एक लाइन में भी जिक्र इस फिल्म में नहीं है, जबकि सुपर 30’ में उनकी बहुत अहम भूमिका थी। हालांकि बाद में वे इस प्रोजेक्ट से निकल गए, लेकिन इसे स्थापित करने में उनका योगदान महत्वपूर्ण था। इस फिल्म में सकारात्मक बात यह है कि यह प्रतिभा का गुण्गान करती है और प्रेरित करती है। यह उस मिथक को चुनौती देती है कि राजा का बेटा ही राजा बनेगा। यह संदेश देती है कि प्रतिभा जिसमें होगी, वह सफल होगा। उसे कोई रोक नहीं सकता। यह फिल्म शिक्षा के कारोबार के काले सच को भी दिखाती है। गीत-संगीत ठीक है और थीम के अनुसार है। गीतों के बोल प्रेरित करते हैं। फिल्म के शुरुआती सीन इसके अच्छे होने की उम्मीद जगाते हैं, लेकिन जैसे-जैसे यह आगे बढ़ती है, एक अच्छी फिल्म की संभावनाएं धूमिल होती जाती हैं। इंटरवल के पहले तक यह कुछ ठीक है, लेकिन इंटरवल के बाद तो एकदम पटरी से उतर जाती है और बस मसालेदार बन कर रह जाती है। मसाला कम न पड़ जाए, इसलिए एक आइटम सॉन्ग का भी प्रबंध निर्देशक ने कर दिया।
बहरहाल, अगर अभिनय की बात करें, तो हृतिक इस फिल्म में मिसफिट लगते हैं। उनका अभिनय बुरा नहीं है, लेकिन जब वह बोलते हैं, तो बहुत बनावटी लगता है। उनके अलावा सारे कलाकारों की संवाद अदायगी में बिहारी लहजा नजर आता है। उनका लुक भी उनके किरदार की गंभीरता को हल्का करता है, हालांकि इसके लिए उनको दोष नहीं दिया जा सकता। उनकी बॉडी लैंग्वेज में भी स्वाभाविकता नजर नहीं आती। इसमें भी बहुत कृत्रिमता है। मृणाल ठाकुर अच्छी लगी हैं। उनकी भूमिका छोटी है, लेकिन वे असर छोड़ती हैं। पंकज त्रिपाठी तो खैर अच्छे अभिनेता हैं ही, और इसमें भी उन्होंने निराश नहीं किया है। फिल्म में वे कुछ हल्के-फुल्के क्षण लेकर आते हैं। हालांकि उनके किरदार को भी अधिक नाटकीय बना दिया गया है। आदेश श्रीवास्तव का काम बढ़िया है। उन्होंने अपनी भूमिका के साथ पूरा इंसाफ किया है। नंदिश सिंह भी प्रभावित करते हैं। उनके हाव-भाव, संवाद बोलने के अंदाज में स्वाभाविकता नजर आती है। अमित साध पत्रकार के छोटे-से किरदार में हैं। हालांकि उस किरदार को अच्छे-से नहीं गढ़ा गया है। वह पत्रकार कम, और लंपट ज्यादा लगता है। विजय वर्मा बहुत छोटे रोल में हैं, लेकिन प्रभावित करते हैं। आनंद कुमार के पिता के रूप में वीरेंद्र सक्सेना का अभिनय अच्छा है और मां कुसुम के रूप में दीपाली गौतम का अभिनय भी अच्छा है। शेष कलाकारों का काम भी अच्छा है।
तमाम कमियों के बावजूद इस फिल्म की भावनात्मक अपील जबर्दस्त है। इसी कारण यह कई जगहों पर प्रेरित भी करती है। फिल्म की यही खासियत दर्शकों को बांधे रखने में कामयाब है। आनंद कुमार के लिए इस फिल्म को देख सकते हैं।

(हिन्दुस्तान में 13 जुलाई, 2019 को संपादित अंश प्रकाशित)

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