फिल्म ‘अर्जुन पटियाला’ की समीक्षा

ढेर सारे मसालेलेकिन जायके में मजा नहीं

राजीव रंजन

निर्देशक: रोहित जुगराज

कलाकार: दिलजीत दोसांझ, कृति सैनन, वरुण शर्मा, रोनित रॉय, जीशान अय्यूब, सीमा पाहवा, पंकज त्रिपाठी, अभिषेक बनर्जी

2 स्टार (दो स्टार )

पटियाला पंजाब का एक प्रसिद्ध शहर है। लेकिन पटियाला को विशेषण की तरह भी इस्तेमाल किया जाता है। किसी चीज को सामान्य से बड़ा बताने के लिए। फिल्म ‘अर्जुन पटियालाबनाने वालों के दिमाग में भी शायद ये बात रही होगी, इसलिए उन्होंने हीरो को पटियाला का निवासी बनाकर उसके नाम में पटियाला शब्द जोड़ दिया होगा। लेकिन क्या नाम में पटियाला जोड़ देने भर से ही कोई भी चीज बड़ी हो जाती है? इस फिल्म के मामले में तो इस सवाल का जवाब बहुत सकारात्मक नहीं है।
एक लेखक (अभिषेक बनर्जी) एक निर्माता (पंकज त्रिपाठी) को फिल्म की कहानी सुनाने जाता है। निर्माता की तीन पीढ़ियां फिल्म निर्माण से जुड़ी हुई हैं। वह पूछता है, कहानी में रोमांस है? एक्शन है? कॉमेडी है? आइटम सॉन्ग है? लेखक हां में जवाब देता है। निर्माता कहता है, फिल्म में सनी लियोने भी चाहिए। लेखक कहता है, वह भी हो जाएगा। निर्माता कहता है, कल से ही फिल्म की शूटिंग कर दो। लेखक कहता है, तीन साल भजिया पाव खाकर बड़ी मेहनत से कहानी लिखी है, सुन तो लो! निर्माता कहता है, सुनाओ। और लेखक कहानी सुनाने लगता है। और वही कहानी पर्दे पर चलने लगती है।
अर्जुन पटियाला (दिलजीत दोसांझ) एक नेशनल जुडो खिलाड़ी है और स्पोट्र्स कोटा से पुलिस में भर्ती होना चाहता है। उसका आदर्श डीएसपी गिल (रोनित रॉय) है, जो खुद भी स्पोट्र्स कोटा से पुलिस में भर्ती हुआ था। बचपन से ही अर्जुन उसको अपना हीरो मानता है। खैर, अर्जुन की पोस्टिंग फिरोजपुर में होती है। उस पुलिस स्टेशन में  ओनिड्डा सिंह (वरुण शर्मा) हेड कांस्टेबल है, जो थोड़ी ही देर में अर्जुन का विश्वासपात्र और दोस्त बना जाता है। इसी शहर में अर्जुन की मुलाकात बिजली से भी तेज पत्रकार रितु रंधावा (कृति सैनन) से होती है और अर्जुन को उससे प्यार हो जाता है। एक दिन डीएसपी गिल एक दिन फिरोजपुर पुलिस स्टेशन आता है और अर्जुन से कहता है कि उसे अपराध मुक्त फिरोजपुर चाहिए। दरअसल, स्थानीय विधायक प्राप्ति मक्कड़ (सीमा पाहवा), लोग जिसे प्रॉपर्टी मेकर कहते है, खुदरा अपराध को खत्म कर खुद उसका होलसेलर बनना चाहती है और इसके लिए पुलिस का इस्तेमाल करती है। पुलिस फिर सकूल (जीशान अय्यूब) का इस्तेमाल करती है और उसके बाद फिरोजपुर में शुरू हो जाता है गैंगवार...
इस फिल्म में निर्माता और निर्देशक ने वह हर चीज डाली है, जिसके बारे में फिल्मी लेखक से निर्माता निर्माता ने डिमांड की थी। जी हां, सनी लियोने भी। लेकिन दिक्कत है कि रोमांस, रोमांस जैसा मजा नहीं देता। एक्शन भी एक्शन जैसा नहीं लगता, यहां तक कि सनी लियोने भी सनी लियोने जैसी नहीं हैं। हां, कॉमेडी जरूर थोड़ी कामेडी-सी लगती है। दरअसल, इस फिल्म में निर्माता और लेखक वाले सीन के बहाने बॉलीवुड की फार्मूला परिपाटी पर चोट की गई है, लेकिन मजेदार बात है कि यह यह फिल्म खुद ही उसका सबसे बड़ा शिकार हो गई है।

फिल्म का पहला हाफ दूसरे के मुकाबले बेहतर है, जिसमें हंसी के कुछ पल हैं, जिससे उम्मीद बंधती है कि फिल्म मजेदार होगी। लेकिन फिल्म जैसे-जैसे आगे बढ़ती जाती है, हल्की होती जाती है। सब कुछ एकदम गुड्डे-गुड़ियों के खेल जैसा घटित होता जाता है। रोहित युगराज का निर्देशन असरदार नहीं है। गीत-संगीत भी उल्लेखनीय नहीं है।
कलाकारों के अभिनय में भी कोई ऐसी बात नहीं है, जिसकी अलग से चर्चा की जाए। दिलजीत दोसांझ ठीक लगे हैं। वरुण शर्मा की कॉमेडी का अंदाज वही पुराना है। कृति सैनन की अदाएं भी पहले की फिल्मों जैसी हैं। रोनित रॉय, सीमा पाहवा ने भी कुछ अलग नहीं किया है। दरअसल, स्क्रिप्ट में इसका स्कोप भी नहीं था। जब स्क्रिप्ट में ही स्कोप न हो, तो अच्छे कलाकार भी लाचार हो जाते हैं। बस, जीशान अय्यूब जरूर कुछ असर छोड़ने में कामयाब हुए हैं।

फिल्म की सबसे बड़ी खासियत है, इसकी लंबाई, जो दो घंटे से भी कम है, इसलिए यह फिल्म ज्यादा उबाऊ नहीं लगती। एक बार देखने चले गए तो बिना किसी विशेष कोफ्त के देख जाएंगे। यह एक टाइमपास फिल्म है।

(हिन्दुस्तान में 27 जुलाई 2019 को संपादित अंश प्रकाशित)

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