फिल्म ‘फैमिली ऑफ ठाकुरगंज’ की समीक्षा

दम नहीं है 'भानुमति के कुनबे' में

राजीव रंजन

निर्देशक: मनोज के. झा

कलाकार: जिमी शेरगिल, सौरभ शुक्ला, माही गिल, पवन मल्होत्रा, मनोज पाहवा, प्रणति राय प्रकाश, मुकेश तिवारी, यशपाल शर्मा, जुत्शी

दो स्टार (2 स्टार)

कई फिल्मों को देख कर ऐसा लगता है कि पहले की कुछ फिल्मों का मिक्सचर देख रहे हैं। एक दृश्य देख कर लगता है कि अरे! ये तो फलाने फिल्म से प्रेरित है। दूसरे दृश्य को देख कर लगता है कि ये तो उस फिल्म के सीन की नकल है। फिर जेहन में ये कहावत उभरने लगती है- कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा। जब कोई फिल्म देख कर ऐसा लगे, तो यह कहना गलत नहीं होगा कि इस पर मेहनत नहीं की गई है, इसे संजीदगी से नहीं बनाया गया है। मनोज के. झा द्वारा निर्देशित फैमिली ऑफ ठाकुरगंजएक ऐसी फिल्म है।

फिल्म की पृष्ठभूमि उत्तर प्रदेश के एक शहर ठाकुरगंज की है। इस शहर पर बाहुबली नन्नू सिंह (जिमी शेरगिल) का दबदबा है। उसकी मां सुमित्रा देवी (सुप्रिया पिलगांवकर) और पत्नी शरबती देवी (माही गिल) को भी दबंगई बहुत भाती है, लेकिन भाई मुन्नू (नंदिश सिंह) आदर्शवादी है और उसके रास्ते बड़े भाई नन्नू से अलग हैं। इसी शहर में नन्नू के गुरु बाबा भंडारी (सौरभ शुक्ला) भी रहते हैं, जो शहर के सारे माफिया कारोबारों पर नियंत्रण रखते हैं। उनका एक और माफिया चेला है बद्री त्रिपाठी (मुकेश तिवारी), जिसकी नन्नू से अदावत है। और इन सबके बीच एक भ्रष्ट पुलिस इंस्पेक्टर सज्जन सिंह (यशपाल शर्मा) भी है और मुन्नू तथा लाली (प्रणति राय प्रकाश) की प्रेम कहानी भी। कभी भाई-भाई के ख्यालात टकराते हैं और कभी शहर के डॉनों के हित।
जब दोनों भाइयों के दृश्य आते हैं, फिल्म दीवारकी याद दिलाती है। जब नन्नू और बद्री समझौते के लिए बाबा के पास पहुंचते हैं, तो कंपनीऔर डीजैसे गैंगस्टर फिल्मों की याद आती है। जब गोलियां चलती हैं, तो गैंग्स ऑफ वासेपुरध्यान में आ जाती है। न तो इस फिल्म की कहानी में ताजगी है, और न ही प्रस्तुतीकरण में। पटकथा कमजोर है और निर्देशन अति साधारण। करीब 105 की मिनट की इस फिल्म में आधे से भी ज्यादा समय भूमिका बनाने में ही गुजर जाता है। जब फिल्म थोड़ी-सी गति पकड़ती है, तो खत्म ही हो जाती है।

इस तरह की पृष्ठभूमि पर बॉलीवुड में कई फिल्में बन चुकी है, तो कोई दर्शक ऐसी फिल्मों को देखना क्यों पसंद करेगा? इस सवाल पर लेखक और निर्देशक ने विचार करने की जहमत ही नहीं उठाई। अगर इस पर विचार करते, तो निश्चित रूप से पटकथा को चुस्त बनाने की कोशिश करते और विषय के पुरानेपन को अच्छे प्रस्तुतीकरण से नया रंग-रोगन दे सकते थे। लेकिन दुर्भाग्य से इस फिल्म में ऐसी कोशिश नजर नहीं आई।
फिल्म का बैकग्राउंड संगीत भी ऐसा नहीं है, जो थोड़ी रुचि पैदा कर सके। संवादों में भी न कोई कसावट नहीं है, और न पंच है। सिनेमेटोग्राफी भी असर पैदा नहीं कर पाती। हां, फिल्म का एक गाना हम तेरी ओर चलेकानों को अच्छा लगता है।

फिल्म में अगर कुछ प्रभावित करने वाली बात है, तो वह है अभिनय पक्ष। मनोज पाहवा बहुत छोटी भूमिका में हैं, लेकिन सबसे ज्यादा प्रभावित करते हैं। जिमी शेरगिल का अभिनय अच्छा है। हालांकि उन्हें इस तरह की फिल्में ज्यादा मिलती हैं, तो अंदाज भी वैसा ही रहता है। माही गिल को भी एक जैसी ही भूमिकाएं मिलती हैं, जिनके साथ वह न्याय करती हैं। नंदिश का अभिनय भी ठीक है और प्रणति भी ठीक लगी हैं। सुप्रिया पिलगांवकर भी ठीक हैं, हालांकि पोस्टर देख कर लगता है कि उनकी भूमिका बहुत दमदार होगी, लेकिन ऐसा नहीं है। सौरभ शुक्ला अपने चिर-परिचित अंदाज में हैं और यशपाल शर्मा, मुकेश तिवारी भी असर छोड़ते हैं। पवन मल्होत्रा पुलिस कप्तान राठौड़ के छोटे-से किरदार में अच्छे लगे हैं। कॉन्ट्रैक्ट किलर बल्लू थापा की भूमिका में जुत्शी का अभिनय रोचक है।
अगर पटकथा में दम होता और निर्देशन ठीक बढ़िया होता, तो इन कलाकारों का अभिनय का ज्यादा असरदार साबित होता और फिल्म एक स्तर तक पहुंच पाती।

(हिन्दुस्तान में 20 जुलाई 2019 को संपादित अंश प्रकाशित)


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