फिल्म ‘खानदानी शफाखाना’ की समीक्षा

थोड़ी-बहुत बात तो करती है ये फिल्म

राजीव रंजन

निर्देशक : शिल्पी दासगुप्ता

कलाकार: सोनाक्षी सिन्हा, प्रियांश जोरा, वरुण शर्मा, अन्नू कपूर, बादशाह, नादिरा बब्बर, कुलभूषण खरबंदा, राजीव गुप्ता, राजेश शर्मा

ढाई स्टार (2.5 स्टार)

पिछले कुछ सालों से बॉलीवुड ने ऐसे विषयों को उठाने की कोशिश की है, जिनके बारे में सार्वजनिक रूप से बात करने में लोग कतराते हैं। इस सिलसिले में ‘विक्की डोनर’, ‘शुभ मंगल सावधान’, ‘पोस्टर बॉयज’, ‘पैडमैन’ और ‘बधाई हो’ जैसी फिल्मों का नाम लिया जा सकता  है। शिल्पी दासगुप्ता निर्देशित ‘खानदानी शफाखाना’ भी एक ऐसे विषय को उठाती है, जिसे ‘वर्जित’ की श्रेणी में रखा जाता है। जैसाकि नाम से ही जाहिर है, यह फिल्म ‘गुप्त रोगों’ से जुड़ी लोगों की धारणाओं के बारे में बात करती है।

होशियारपुर, पंजाब में रहने वाली बबिता बेदी उर्फ बेबी बेदी (सोनाक्षी सिन्हा) मेडिकल सेल्स रिप्रेजेंटेटिव है। पिता की मृत्यु के बाद परिवार की जिम्मेदारी उसके ही कंधों पर है, क्योंकि उसका बड़ा भाई भूषित (वरुण शर्मा) एक नंबर का कामचोर है। बेबी को परिवार चलाने के साथ बड़ी बहन सीटू की शादी में चाचा (राजीव गुप्ता) से लिए गए कर्ज को भी चुकाना है। उसका चाचा इस जुगत में लगा है कि कर्ज के बदले किसी तरह उनका घर हथिया ले। एक दिन बेबी को अचानक खबर मिलती है कि गुप्त रोगों का इलाज करने वाले उसके मामा ताराचंद (कुलभूषण खरबंदा) की एक मरीज ने हत्या कर दी।
मामा जी का वकील टांग्रा (अन्नू कपूर) बेबी को बताता है कि मामाजी ने वसीयत में अपना खानदानी शफाखाना और बाकी संपत्ति बेबी के नाम कर दी है। बस एक शर्त है कि उसे उनका शफाखाना कम से कम छह महीने चलाना पड़ेगा। उसके बाद ही वह उस संपत्ति को बेच सकती है, वरना वह संपत्ति हिंदुस्तानी यूनानी रिसर्च सेंटर को दे दी जाएगी। कर्ज चुकाने और अपना घर बचाने के लिए बेबी ऐसा करने को तैयार हो जाती है। हालांकि उसकी मां (नादिरा बब्बर) इसके सख्त खिलाफ है। उसे अपने भाई ताराचंद के पेशे से नफरत है। फिर भी बेबी चोरी-चुपके ये काम करने लगती है। एक लड़की को गुप्त रोगों के इलाज का क्लिनिक चलाने पर लोगों की भवें तन जाती है, फिर भी हार नहीं मानती। जब भी वह कमजोर पड़ती है, लेमन हीरो (प्रियांशु जोरा) उसकी हिम्मत बढ़ाता है। रैप स्टार गबरू घटाक (बादशाह) भी उसकी मदद करता है...
निस्संदेह यह फिल्म एक जरूरी मुद्दा दर्शकों के सामने रखती है और निर्देशक के रूप में अपनी पहली ही फिल्म में एक बोल्ड विषय उठाने के लिए शिल्पी दासगुप्ता और फिल्म के निर्माता बधाई के पात्र हैं। लेकिन अच्छे विषय का चुनाव ही अच्छी फिल्म की गारंटी नहीं हो सकती। उसके लिए अच्छी पटकथा बहुत जरूरी है। इस मामले में लेखक गौतम मेहरा चूक गए हैं। शिल्पी भी इस विषय को रोचक तरीके से पेश नहीं कर पाई हैं। फिल्म की गति धीमी है। यह मुद्दे पर आने में बहुत समय लगा देती है। हालांकि दूसरे हाफ में इसकी गति थोड़ी ठीक हुई है। इस मामले में लेखक-निर्देशक को शूजीत सरकार की ‘विक्की डोनर’ और आर.एस. प्रसन्ना की ‘शुभ मंगल सावधान’ से थोड़ी सीख लेनी चाहिए थी कि ऐसे विषयों को कैसे रोचक अंदाज में परोसा जा सकता है। पटकथा में विचलन बहुत है। संवादों में वो दम और चुटीलापन नहीं है, जो लोगों पर असर डाल सके।
कॉमेडी फ्लेवर में यह एक अच्छी फिल्म हो सकती थी, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। ‘फुकरे’ सिरीज के निर्देशक मृगदीप लाम्बा इसके निर्माता हैं, लेकिन उनकी छाप इस फिल्म में नहीं दिखाई देती। फिर भी यह फिल्म पूरी तरह निराश नहीं करती है। यह कई दृश्यों में भावनात्मक रूप से प्रभावित करती है। खासकर क्लाइमैक्स सीन कुछ बेहतर है। एकाध कॉमेडी सीन भी मजेदार हैं। संगीत भी ठीक है। फिल्म की सिनेमेटोग्राफी ठीक है। अगर एडिटिंग अच्छी होती, तो फिल्म थोड़ी और बेहतर हो सकती थी।
इस फिल्म का सबसे बढ़िया पहलू है सोनाक्षी सिन्हा का अभिनय। एक तरह से देखा जाए, तो वह पूरी फिल्म अपने कंधों पर लेकर चलती हैं। उनके अभिनय में कई शेड्स देखने को मिलते हैं। बिंदासपना, कॉमेडी, भावनात्मकता, अपने किरदार के सारे पक्षों को उन्होंने खूबसूरती से जिया है। खासकर जब वह कटार सिंह की कहानियां सुनाती हैं, तो बहुत प्रभावित करती हैं। वरुण शर्मा भी अच्छे लगे हैं। अगर उनकी भूमिका थोड़ी ज्यादा होती, तो फिल्म में कुछ और रोचकता आ सकती थी। वे जब भी पर्दे पर आते हैं, फिल्म में थोड़ा रस आ जाता है। वैसे वरुण के साथ एक ट्रेजिडी है कि निर्माता हर फिल्म में उन्हें ‘स्त्री विहीन’ रख देते हैं। ‘फुकरे’, ‘अर्जुन पटियाला’ से लेकर ‘खानदानी शफाखाना’ तक ये सिलसिला जारी है। उम्मीद है कि आने वाली फिल्मों के निर्माता उनकी इस समस्या का समाधान करेंगे! प्रियांशु का अभिनय भी ठीक है। अन्नू कपूर का किरदार इस फिल्म में ‘विक्की डोनर’ के उनके किरदार की याद दिलाता है। उनका अभिनय भी अच्छा है। जज के रूप में राजेश शर्मा की भूमिका छोटी, मगर दिलचस्प है। रैपर के रूप में बादशाह तो स्टार हैं ही, अभिनेता के रूप में भी निराश नहीं करते। फिल्म में उनकी भूमिका उनके निजी जीवन जैसी ही है, जिसमें वह फिट लगे हैं। नादिरा बब्बर मंजी हुई अभिनेत्री हैं और यह बात उनके अभिनय में नजर आती है। कुलभूषण खरबंदा अपने चिर-परिचित अंदाज में हैं। राजीव गुप्ता भी ठीक हैं।
अपने विषय और सोनाक्षी के अभिनय की वजह से यह फिल्म एक बार देखने लायक है।

(हिन्दुस्तान में 3 अगस्त, 2019 को संपादित अंश प्रकाशित)

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