फिल्म ‘जबरिया जोड़ी’ की समीक्षा

नाम जबर और फिलिम लचर

राजीव रंजन

कलाकार: सिद्धार्थ मल्होत्रा, परिणीति चोपड़ा, जावेद जाफरी, संजय मिश्रा, शीबा चड्ढा, अपारशक्ति खुराना, चंदन राय सान्याल, शरद कपूर, नीरज सूद

निर्देशक: प्रशांत सिंह

2 स्टार

बहुत साल पहले बिहार के भोजपुर जिले के मुख्यालय आरा में एक ही दिन कई लड़कों का एक साथ अपहरण कर लिया गया था। उन लड़कों को एक गांव में ले जाकर उनकी जबरदस्ती शादी करा दी गई थी। उनमें एक लड़के को मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं। दरअसल जिस गांव में उन्हें ले जाया गया था, वहां की लड़कियों की शादी नहीं हो पा रही थी। इसलिए कुछ लोगों ने फैसला किया कि सीधे तरीके से शादी नहीं हो पा रही है, तो उल्टा तरीका अपनाया जाए।
ये तो तस्वीर का एक पहलू था। दूसरा पहलू यह है कि जिन लड़कियों की ऐसे शादी करा दी गई थी, उनकी जिंदगी अंधेरे बंद कमरों की तरह हो गई, जहां न रोशनी पहुंचती है, न हवा आती है। बस दिन-रात घुटन। उन्हें न तो ससुराल वालों ने अपना माना, पति ने अपना समझा। कम से कम जिस लड़के को मैं जानता हूं, उसके बारे में तो निश्चयपूर्वक कह सकता हूं। हमारे समाज में लड़कियों की शादी एक ऐसा मुद्दा है कि उसके लिए मां-बाप हर कीमत चुकाने को तैयार रहते हैं और लड़कियों को भी इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। बहन-बेटी की शादी हो बस। उसके ऊपर विवाहित होने का ठप्पा लग जाए, फिर चाहे उसके जिंदगी कैसी भी गुजरे, गुजर जाएगी।
बिहार के कुछ इलाकों में एक समय इस तरह की शादियां काफी हुईं, जिन्हें ‘पकड़ौवा बियाह’ या ‘उठौवा बियाह’ कहा जाता है। इसके कई कारण हैं, जिनमें दहेज समस्या प्रमुख है। सामाजिक दबाव, भय की वजह से इनमें से कई शादियां भले ही टिक गई हों, लेकिन पति-पत्नी के बीच का जो रिश्ता है, वह सही अर्थों में फलीभूत नहीं हो पाया।
सिद्धार्थ मल्होत्रा और परिणीति चोपड़ा की मुख्य भूमिकाओं वाली ‘जबरिया जोड़ी’ इसी मुद्दे से प्रेरित है। यह एक ऐसी समस्या थी, जिस पर विचारोत्तेजक फिल्म बन सकती है। लेकिन अफसोस कि निर्माता-निर्देशक और लेखक को बस इस नाम में दिलचस्पी थी, इस विषय को संजीदगी के साथ पेश करने की नहीं। फिल्म में ‘जबरिया’ शब्द जोड़ भर देने और ‘जबर’ आइडिया को उठा लेने से ही कोई फिल्म जबरदस्त हो जाती, तो सिर्फ नाम के भरोसे ही कई फिल्में कालजयी हो जातीं। लेकिन वास्तव में ऐसा होता नहीं।

अभय (सिद्धार्थ मल्होत्रा) और बबली (परिणीति चोपड़ा) एक ही गांव में रहते हैं। दोनों को बचपन में ही प्यार हो जाता है। एक दिन बबली की मां दोनों को एक साथ बैठे देख लेती है। फिर उसके पिता दुनिया लाल (संजय मिश्रा) परिवार के साथ पटना चले जाते हैं। अभय और बबली बचपन में ही अलग हो जाते हैं। अभय के पिता हुकुमदेव सिंह (जावेद जाफरी) एक दबंग व्यक्ति हैं, जिनके कई महिलाओं से संबंध हैं। अभय भी यह जानता है और उसकी मां (शीबा चड्ढा) भी, पर डर की वजह से दोनों कुछ नहीं कर पाते।
विंडंबना देखिए कि अपनी मां की तकलीफ समझने के बावजूद, अभय भी बड़ा होकर दबंग बन जाता है और अपने पिता के कहने पर विवाह योग्य लड़कों को उठा कर उनकी शादी जबरदस्ती करवा देता है। ऐसी ही एक शादी में उसकी मुलाकात बबली से हो जाती है। बबली को फिर अभय से प्यार हो जाता है। लेकिन अभय इस मामले में संवेदनशील नहीं है और उसका लक्ष्य विधायक बनना है। बबली और अभय के इस रिश्ते से दुनिया लाल परेशान हो जाते हैं और बबली की शादी का रिश्ता लेकर एक डॉक्टर लड़के के पिता के पास जाते हैं। लेकिन उनसे इतना दहेज मांगा जाता है कि वह निराश होकर लौट आते हैं और हुकुम सिंह की शरण में पहुंच जाते हैं। एक दिन बबली, अभय का ही अपहरण कर लेती है। फिर शुरू होती है अभय-बबली की प्रेम कहानी में उथल-पुथल। मां की बातों से अभय की आत्मा भी जाग जाती है और वह अपने पिता से विद्रोह कर देता है...
उम्मीद थी कि यह फिल्म एक संजीदा विषय को संजीदगी से पेश करेगी और एक दिलचस्प कहानी देखने को मिलेगी। लेकिन फिल्म को देख कर लगता है कि यह एक कॉमेडी फिल्म है (हालांकि कुछ खास हंसाती भी नहीं), जिसमें जबरिया शादी के आइडिया को जबरदस्ती जोड़ दिया गया है। फिल्म की पटकथा बहुत कमजोर है। इसमें इतने छिद्र हैं कि एक अच्छा कॉन्सेप्ट पूरा रिस जाता है, कुछ बचता ही नहीं। हां, कुछ संवाद जरूर मजेदार हैं। मुख्य कलाकारों की ‘बिहारी हिंदी’ पिछले दिनों रिलीज हुई ‘सुपर 30’ के हृतिक रोशन से काफी बेहतर है, लेकिन वैसी नहीं है, जैसी वह वास्तव में होती है। फिल्म का प्रस्तुतीकरण बहुत खराब है। निर्देशक प्रशांत सिंह विषय को संभाल नहीं पाए हैं। उनका निर्देशन असरहीन है। ड्रेसिंग और मेकअप कई बार हास्यास्पद लगता है, खासकर लीड जोड़ी का। संपादन में भी कसाव नहीं है। पहले हाफ में फिल्म थोड़ी-सी ठीक है, लेकिन दूसरे हाफ में तो इसकी गति भी धीमी हो जाती है और यह पूरी तरह पटरी से उतर जाती है।
फिल्म का संगीत औसत है। दो गीत विशेष तौर पर उल्लेखनीय हैं। उनके बोल और धुन दोनों असर छोड़ते हैं। युवा गीतकार राजशेखर द्वारा लिखा गया ‘कि होंदा प्यार’ कर्णप्रिय है और इसके बोल प्रेम की पीड़ा को मार्मिकता से बयां करते हैं। दूसरा शीर्षक गीत ‘अंखियां ढूंढे’ भी अच्छा लगता है। इसके अलावा ‘मच्छरदानी’ के बोल थोड़ा ध्यान खींचने वाले हैं। राजशेखर ने इसमें नई पीढ़ी से कनेक्ट करने की कोशिश की है। बाकी के गीतों में कोई दम नहीं है। बिहार की पृष्ठभूमि में बनी फिल्म में उस मिजाज के गीत नहीं होना थोड़ा अखरता है।

अभिनय की बात करें, तो यह पहलू बाकी सारे विभागों के मुकाबले बेहतर है। हालांकि हीरो सिद्धार्थ मल्होत्रा एक्शन सीन में ही ठीक लगते हैं, बाकी दृश्यों में वह ज्यादा प्रभावित नहीं कर पाते, जबकि उनके पास अवसर था। परिणीति का अभिनय ठीक है, लेकिन वह भी कुछ अलग और खास नहीं कर पाई हैं। कमजोर पटकथा ने उनके किरदार और अभिनय दोनों को सीमा में बांध दिया। जावेद जाफरी का अभिनय अच्छा है। बड़े दिनों के बाद वे कॉमेडी के अलावा किसी दूसरे रंग में दिखे हैं। किरदार की दबंगई उनके अभिनय में दिखती है।
अपारशक्ति खुराना बबली के दोस्त संतो के रूप में जमे हैं, लेकिन उनको और जगह मिलनी चाहिए थी। उनके किरदार को ज्यादा स्पेस नहीं दिया गया। छोटी भूमिका के बावजूद सबसे बढ़िया अभिनय शीबा चड्ढा का है। वह आंखों से बहुत कुछ बयां कर देती हैं। अभय के दोस्त गुड्डू के रूप चंदन राय सान्याल प्रभावित करते हैं। शरद कपूर का किरदार ही ठीक से नहीं गढ़ा गया है। वे असर नहीं छोड़ पाते। संजय मिश्रा शानदार हैं। वे ऐसे कलाकार हैं, जो किसी भी भूमिका में अपना प्रभाव छोड़ ही देते हैं। भूमिका छोटी हो या बड़ी, वे अपनी उपस्थिति दर्ज करा देते हैं। पाठक जी के रूप में नीरज सूद भी अच्छे लगे हैं। बाकी कलाकारों का काम भी ठीक है।

यह फिल्म अपने विषय के साथ न्याय कर पाई है। यह न तो संदेश दे पाई है, न ढंग की कॉमेडी बन पाई है और न ही एक अच्छी प्रेम कहानी। वैसे फिल्म देखने की आदत है, तो देख सकते हैं।

(हिन्दुस्तान में 10 अगस्त 2019 को संपादित अंश प्रकाशित)


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