फिल्म ‘मोतीचूर चकनाचूर’ की समीक्षा

चकनाचूर नहीं है ये मोतीचूर

राजीव रंजन


निर्देशक : देबमित्रा बिस्वाल

कलाकार: नवाजुद्दीन सिद्दीकीआथिया शेट्टीविभा छिब्बरअभिषेक रावतनवनी परिहारविवेक मिश्राकरुणा पांडेय

तीन स्टार



इन दिनों बॉलीवुड में छोटे और मझोले शहरों की कहानियां को लेकर गजब का आकर्षण दिख रहा है। इसकी वाजिब वजह भी है। ऐसी कहानियां दर्शकों को सिनेमाघरों में खींच रही हैं और निर्माताओं के लिए मुनाफे का सौदा साबित हो रही हैं।  ‘मोतीचूर चकनाचूर’ भी एक ऐसी ही कहानी हैजो मध्यमवर्गीय परिवारों के ईद-गिर्द बुनी गई है।

पुश्पिंदर त्यागी (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) दुबई की एक कंपनी में अकाउंटेंट है। हालांकि उसकी मां (विभा छिब्बर) लोगों से यही बताती है कि वह चार्टर्ड अकाउंटेंट है। सरल स्वभाव का पुश्पिंदर 36 साल का हो चुका हैलेकिन मां के दहेज की मांग की वजह से उसकी शादी नहीं हो पाई है। वह चाहता है कि किसी भी तरह उसकी शादी हो जाएचाहे लड़की कैसी भी हो। वह दुबई से अपने घर भोपाल आता है। उसके पड़ोस में अनीता अवस्थी उर्फ एन्नी (आथिया शेट्टी) रहती है। उसका सपना विदेश जाने का है, इसलिए वह चाहती है कि किसी भी तरह इंग्लैंड या अमेरिका में नौकरी करने वाले लड़के से उसकी शादी हो जाए।

अपनी शादी को लेकर बेकरार इन दो व्यक्तियों की मुलाकात होती है। इधर एन्नी को  ऐसा कोई लड़का नहीं मिलताजो उसकी महत्वाकांक्षाओं के खांचे में फिट हो जाएतो उसकी मौसी (करुणा पांडे) उसे सलाह देती है कि वह पुश्पिंदर को पटा ले। भले ही वह अमेरिका या इंग्लैंड में नहीं रहतालेकिन दुबई में तो रहता है। एन्नी पुश्पिंदर को पसंद तो नहीं करतीलेकिन विदेश जाने के अपने सपने को पूरा करने के लिए मौसी की बात मान लेती है। उधर पुश्पिंदर का रिश्ता एक लड़की से तय होता हैजो काफी मोटी हैफिर भी उसे ये रिश्ता मंजूर होता है। लेकिन मां की दहेज की मांग के कारण यह रिश्ता टूट जाता है। इस प्रकरण के बादएक दिन एन्नी और पुश्पिंदर शादी करके घर आ जाते हैं। पुश्पिंदर की मां पर वज्रपात हो जाता हैउसका भारी-भरकम दहेज पाने का सपना टूट जाता है। इस घटना के बाद लोक-लिहाज के डर से दोनों पड़ोसी परिवार अपने बच्चों की शादी पारंपरिक रीति से कर देते हैं। शादी के अगले दिन पता चलता है कि पुश्पिंदर की दुबई वाली नौकरी छूट चुकी है। इस बात को सुन कर एन्नी के तो सपने ही बिखर जाते हैं...

अगल-बगल रहने वाले दो परिवारों में सिमटी यह कहानी बहुत प्यारी लगती है।   इसमें कृत्रिमता नहीं है। पटकथा पर मेहनत की गई है और कुछ भी जबर्दस्ती डालने का प्रयास नहीं किया गया है। पटकथा में एकाध जगहों को छोड़ कर ज्यादा झोल नहीं है। किरदारों को अच्छे-से गढ़ा गया हैजो अपने माहौल के अनुकूल दिखते हैं। संवाद भी बिल्कुल जरूरत के मुताबिक हैं। हालांकि क्षेत्रीय प्रभाव पैदा करने के लिए संवादों में बुंदेलखंडी लहजे को बहुत ज्यादा तरजीह दी गई हैजिसे थोड़ा कम किया जा सकता था। निर्देशन सधा हुआ है। अपनी पहली फिल्म में ही निर्देशक देबमित्रा बिस्वाल परिपक्व नजर आती हैं। सीधी-सादी कहानी को उन्होंने सधे तरीके से पेश किया है। लेखक और निर्देशक एक ज्यादा उम्र के अविवाहित पुरुष की भावनाओं और विदेश के आकर्षण से अभिभूत एक लड़की की भावनाओं को बढ़िया तरीके से पेश करने में सफल रहे हैं।

फिल्म की सिनेमेटोग्राफी अच्छी है। पूर्वार्ध में फिल्म ज्यादा मजेदार और कसी हुई हैजबकि उत्तरार्ध में इसकी गति थोड़ी धीमी होती है और कई जगह यह ठहरी हुई लगती है। सवा दो घंटे की इस फिल्म में से अगर 10-15 मिनट कम कर दिए गए होतेतो यह और ज्यादा कसी तथा प्रभावी हो सकती थी। फिल्म का क्लाइमैक्स रोचक है। यह फिल्म हंसाती भी हैसंजीदा भी करती हैकुल मिलाकर दर्शकों का पूरा मनोरंजन करती है।

फिल्म की स्टारकास्ट बहुत अच्छी है। हर कलाकार ने अपने हिस्से का काम बढ़िया  किया है। नवाजुद्दीन का अभिनय शानदार है। उन्होंने किरदार के हर शेड को बखूबी जिया है। एक अच्छे अभिनेता की जो उनकी साख हैउस पर वह पूरी तरह खरे उतरे हैं। आथिया शेट्टी अपने अभिनय से हैरान करती हैं। एक चुलबुलीबिंदास लड़की के किरदार में वह बहुत फबती हैं। ऐसा लगता हैइस किरदार को उन्हीं की जरूरत थी। उनके हाव-भाव एकदम सटीक लगते हैं। नवाज की मां के रूप में विभा छिब्बर का अभिनय शानदार है। घर में सब पर अपना प्रभुत्व रखने वाली महिला के किरदार को उन्होंने प्रामाणिकता प्रदान की है। भाई के रोल में अभिषेक रावत भी खूब जमे हैं। एन्नी की मां के रूप में नवनी परिहार का काम बहुत अच्छा हैउनके हावभाव बहुत सहज लगते हैंजबकि मौसी बनी करुणा पांडेय ने भी शानदार काम किया है। जिन्होंने ‘जिंदगी टीवी’ पर प्रसारित उनका धारावाहिक ‘भागे रे मन’ देखा होगावे उनकी अभिनय क्षमता से भलीभांति परिचित होंगे। नवाज की दादी के किरदार में ऊषा नागर बहुत प्यारी लगती हैं। अंग्रेजी वाला ‘स्वीट’। नवाज की बहन बनीं सपना संड और पिता बने संजीव वत्स का अभिनय भी अच्छा है। बाकी सारे कलाकार भी ठीक हैं।
  
इस फिल्म की सबसे बड़ी ताकत हैइसकी सादगी और सहजता। किसी भी सीन को देख कर यह नहीं लगता कि उसमें किसी भी बात को डालने के लिए अतिरिक्त प्रयास किया गया है। फिल्म का नाम ‘मोतीचूर चकनाचूर’ जरूर हैलेकिन यह मोतीचूर चकनाचूर नहीं है। पूरी तरह साबूत और स्वादिष्ट है। कम से कम एक बार चखने लायक तो जरूर ही है।

(16 नवंबर को ‘हिंदुस्तान’ में संपादित अंश प्रकाशित)


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