फिल्म ‘पागलपंती’ की समीक्षा

अपने नाम जैसी ही है ‘पागलपंती’

राजीव रंजन

निर्देशक : अनीस बज्मी 

कलाकार: जॉन अब्राहम, इलियाना डीक्रूज, अनिल कपूर, पुलकित सम्राट, कृति खरबंदा, अरशद वारसी, सौरभ शुक्ला, उर्वशी रौतेला, मुकेश तिवारी, इनामुलहक, जाकिर हुसैन, अशोक समर्थ, बृजेंद्र काला

दो स्टार

बड़े-बड़े स्टार हैं, सुंदर और ग्लैमरस हीरोइनें हैं, अच्छे चरित्र अभिनेता हैं, भव्य लोकेशन है, अब क्या चाहिए! कुछ फिल्मों के निर्माता-निर्देशक शायद ऐसे ही सोचते हैं और फिल्म बना डालते हैं। उन्हें लगता है, जब इतनी चीजें हैं, तो कहानी, पटकथा, संवाद पर मेहनत क्या करना! ‘पागलपंती’ का निर्माण भी शायद इसी सोच के साथ किया गया है।
राजकिशोर उर्फ राज (जॉन अब्राहम) की किस्मत बहुत खराब है। उसकी खराब किस्मत के चक्कर में उसके दोस्तों जंकी (अरशद वारसी) और चंदू (पुलकित सम्राट) का भी बेड़ा गर्क होता रहता है। एक दिन तीनों डॉन राजा साहब (सौरभ शुक्ला) का सात करोड़ का नुकसान कर डालते हैं। राजा साहब का साला वाईफाई (अनिल कपूर) इस नुकसान की भरपाई करने के लिए उन्हें अपने यहां काम पर रख लेता है। बंगले में राज के कदम पड़ते ही राजा साहब और वाईफाई के भी बुरे दिन शुरू हो जाते हैं। दोनों के जीवन में नीरज मोदी (इनामुलहक) का प्रवेश होता है, जो भारतीय बैंकों के हजारों करोड़ रुपये लेकर लंदन भाग आया है। वह राजा साहब को 700 करोड़ रुपये देता है, लेकिन वे रुपये आग में जल जाते हैं। इधर राज की खराब किस्मत का ऐसा असर होता है कि राजा साहब कंगाल हो जाता है। उधर नीरज मोदी अपने पैसे वापस पाने के लिए राजा साहब की जान के पीछे पड़ जाता है। अपने ज्योतिषी की सलाह पर राजा साहब राज, जंकी व चंदू को नौकरी से निकाल देता है, पर चीजें सुलझने की बजाय और उलझ जाती हैं...

इस फिल्म में कहानी और पटकथा  के नाम पर बस खानापूर्ति की गई है। तीन-तीन लेखक हैं, पर कहानी तीन टके की भी नहीं है। फिल्म के एक लेखक अनीस बज्मी भी हैं, जिन्होंने निर्देशन की कमान भी संभाली है। उन्होंने ‘स्वर्ग’, ‘शोला और शबनम’, ‘प्रतिबंध’, ‘सिर्फ तुम’,  जैसी हिट फिल्में लिखी हैं। ‘नो एंट्री’, ‘वेलकम’ जैसी कई हिट कॉमेडी फिल्में निर्देशित भी की हैं। ‘पागलपंती’ में न तो वह लेखक के रूप में प्रभावित कर पाए हैं और न निर्देशक के रूप में।
फिल्म कॉमेडी के विचार से शुरू होती है और भटकते-भटकते देशभक्ति के प्लॉट पर पहुंच जाती है। वह भी बेहद लचर अंदाज में। न तो इस फिल्म की ‘सिचुएचनल कॉमेडी’ में असर है और न ही संवादों में हास्य है। फिल्म में जॉन अब्राहम का एक संवाद है, जरूरी नहीं कि हर बात का मतलब हो। यह बात इस फिल्म पर सटीक बैठती है। फिल्म की लोकेशन अच्छी है और सिनेमेटोग्राफी भी ठीक है, लेकिन गीत-संगीत में कोई दम नहीं है। दो पुराने गानों- ‘चालबाज’ के ‘तेरा बीमार मेरा दिल’ और ‘प्यार किया तो डरना क्या’ के ‘तुम पर हम हैं अटके’ का रीमिक्स डाल कर ही गीत-संगीत के कर्तव्य से मुक्ति पा ली गई है।

फिल्म में कलाकारों के पास अभिनय के लिए कुछ खास था नहीं। जॉन अब्राहम एक्शन में तो जमते हैं, लेकिन कॉमेडी उनके वश की नहीं लगती। अरशद वारसी को ज्यादातर एक जैसे रोल मिलते हैं और वह ज्यादातर एक जैसा ही करते  हैं। एक सौरभ शुक्ला ही हैं, जो कुछ राहत प्रदान करते हैं। ऐसा कम ही होता है कि अनिल कपूर अपने अभिनय से निराश करें, लेकिन इस फिल्म में वह भी छाप नहीं छोड़ पाते। वैसे भी जिस फिल्म की पटकथा ही लचर हो, उसमें कोई भी क्या कर लेगा। इनामुलहक का अभिनय ठीक है। उनका गेटअप नीरव मोदी जैसा है, लेकिन यह उन पर सूट नहीं करता। हीरोइनों में इलियाना डीक्रूज कुछ ठीक हैं, लेकिन कृति खरबंदा अमीर बाप की सिरफिरी बेटी के रूप में नहीं जमी हैं। उर्वशी रौतेला के किरदार का इस फिल्म में क्या औचित्य है, समझ में नहीं आता। बृजेंद्र काला का अभिनय ठीक है। मुकेश तिवारी, जाकिर हुसैन और अशोक समर्थ भी ठीकठाक हैं।

जब कोई ऊटपटांग हरकत करता है, तो हम कहते हैं- क्या पागलपंती कर रहे हो! फिल्म ‘पागलपंती’ भी ऐसी ही है। उस पागलपंती में कई बार हंसी भी आती है, पर फिल्म के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता।

(23 नवंबर, 2019 को ‘हिन्दुस्तान’ में प्रकाशित)



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