राजीव, राव और कांग्रेस क्यों नहीं जिम्मेदार हैं बाबरी विध्वंस के लिए?


राजीव रंजन

इसे करीब आठ साल पहले लिखा था। आज पुरानी फाइलों को खंगालते हुए इस पर नजर पड़ गई तो सोचा क्‍यों न इसे ब्लॉग पर डाल दूं।


साल और 48 अवधि विस्तार के बाद जस्टिस एम. एस. लिब्रहान ने आखिरकार विवादित ढांचे (राम जन्मभूमि- बाबरी मस्जिद) विध्वंस के बारे में अपनी रिपोर्ट दे दी है। जैसीकि उम्मीद थी, इसे लेकर काफी बवाल मचा और अभी भी मच रहा है। इसे लेकर कई तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं, जो वाजिब भी हैं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि विवादित ढांचे (राम जन्मभूमि- बाबरी मस्जिद) के विध्वंस के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री पामुलपति वेंकट नरसिंह राव क्यों नहीं दोषी हैं? क्या इस पूरे प्रकरण में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की कोई भूमिका नहीं है?

6 दिसंबर, 1992 को जब विवादित ढांचे को जमींदोज कर दिया गया, तब देश के प्रधानमंत्री नरसिंह राव ही थे। उनके हाथ में सारी शक्तियां थीं, राज्य सरकार को बर्खास्त करने की भी। नरसिंह राव सरकार में मंत्री रहे माखनलाल फोतेदार ने निजी समाचार चैनल ‘एनडीटीवी’ के प्रोग्राम ‘हमलोग’ में साफतौर पर नरसिंह राव को जिम्मेदार ठहराया निष्क्रियता के लिए। उन्होंने कहा कि राव ने उत्तर प्रदेश के राज्यपाल को राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने की अनुशंसा नहीं करने को कहा था, जिस वजह से वहां राष्ट्रपति शासन लागू नहीं किया जा सका। फोतेदार के मुताबिक, तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने उनसे यह बात कही थी। फोतेदार ने इस पर चर्चा करते हुए कहा- उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन की अनुशंसा नहीं करने के राष्ट्रपति के सवाल पर प्रदेश के राज्यपाल ने कहा कि प्रधानमंत्री राव ने उनसे कहा है कि जब तक वे (राव) नहीं कहें, राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने की अनुशंसा नहीं की जाए।

आखिर कौन सी मजबूरी थी कि राव ने कल्यावण सिंह की सरकार नहीं बर्खास्त की? सिवाए इस बात के कि राव वही चाहते थे, जो 6 दिसंबर को अयोध्या में हुआ। विचारणीय तथ्य है कि उन्हीं राव ने बिना किसी ठोस कारण के भाजपा की अन्य तीन सरकारों- मध्य प्रदेश, गुजरात और हिमाचल प्रदेश को बर्खास्त कर दिया था। सिर्फ इसलिए कि वे भाजपा की सरकारें थीं। विवादित ढांचे के विध्वंस में उन सरकारों का कोई हाथ नहीं था। वैसे भी कांग्रेस ने कभी राज्य सरकारों को बर्खास्ते करने में कंजूसी नहीं की है। फिर उत्तर प्रदेश को छोड़ने के पीछे और क्या कारण था। नरसिंह राव कोई कच्चे खिलाड़ी तो थे नहीं। राजीव गांधी की नृशंस हत्या के बाद वे राजनीतिक संन्यास से निकल कर देश के प्रधानमंत्री बने और अपनी अल्पमत की सरकार को बहुमत में बदल दिया। इन सब परिस्थितियों के मद्देनजर लिब्रहान आयोग को राव को क्लीीन चिट दे देना कई सवाल खड़े करता है।

अब थोड़ा और पहले चलते हैं, नरसिंह राव के प्रधानमंत्री बनने से कोई पांच साल पहले 1986 में, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने राम मंदिर का ताला खुलवाया और वहां पूजा-अर्चना शुरू हुई। इसके बाद राम जन्मभूमि आंदोलन तीव्र से तीव्रतर होता गया, जिसकी परिणति 6 दिसंबर 1992 को विवादित ढांचे के विध्वंस के रूप में हुई। थोड़ी-सी भी समझ रखने वाले व्यक्ति के लिए यह समझना मुश्किल नहीं है कि राजीव गांधी चाहते थे कि अयोध्या के विवादित ढांचे में भगवान राम की पूजा हो। हालांकि, कांग्रेस की दलील है कि ताला राजीव गांधी ने नहीं खुलवाया था, बल्कि फैजाबाद जिले की अदालत के निर्देश पर खोला गया था। कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी ने एनडीटीवी के प्रोग्राम ‘हमलोग’ में ऐसा ही कहा था।

लेकिन, यहां कई सवाल खड़े होते हैं। सबसे बड़ा सवाल है कि इतने संवेदनशील मुद्दे पर राजीव गांधी ने थोड़ा धैर्य क्यों नहीं दिखाया। उन्होंने न्याायालय के आदेश के बाद जरा-सी भी देर किए बगैर विवादित ढांचे का ताला क्यों खुलवा दिया? उन्होंने भारत का प्रधानमंत्री होने के नाते ऐसे प्रयास क्यों नहीं किए कि इस फैसले के खिलाफ ऊंची अदालतों में अपील की जाए या कराई जाए। अगर ऊपरी अदालतें भी यह फैसला नहीं बदलती, तो अपने प्रचंड बहुमत की बदौलत वे कानून को ही बदल डालते। जैसा उन्होंने शाहबानो मामले में देश की सर्वोच्च अदालत के फैसले के खिलाफ किया था। एक मजलूम मुस्लिम महिला के हक में दिए गए फैसले को, जो दूसरी मजलूम मुस्लिम महिलाओं के लिए एक उम्मीद की लौ साबित हो सकता था, अपने प्रचंड बहुमत के जोर पर उन्होंने तार-तार कर दिया था। फिर राम मंदिर के मामले में कौन-सी मजबूरी थी, जिसने उनके हाथ रोक लिए? इससे यही बात जाहिर होती है कि राजीव गांधी की रुचि इस बात में थी कि विवादित ढांचे में पूजा का सिलसिला शुरू हो। या फिर, वे भी हिदू कार्ड खेलना चाहते थे? यह एक बड़ा सवाल है।

भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद् तो इस पूरे परिदृश्य में (इतने व्‍यापक स्‍तर पर) राम मंदिर का ताला खुलने के बाद ही अहम भूमिका में आए। अगर विवादित ढांचे के विध्वंस के लिए वे दोषी हैं, तो राजीव गांधी, नरसिंहा राव और कांग्रेस क्यों नहीं? कांग्रेसी कोर्ट और कानून की आड़ लेकर इस दोष से बच नहीं सकते। अगर कांग्रेस राजीव गांधी की भविष्योन्मुखी सोच और नरसिंह राव द्वारा शुरू किए गए आर्थिक सुधारों की उपलब्धि का श्रेय लेती है, तो उनकी असफलताओं की जिम्मेदारी क्यों नहीं? उपलब्धियों का श्रेय लेना और असफलताओं की जिम्मेदारी से भागना, कांग्रेस के वैचारिक दोगलेपन और उसकी वोट बैंक की राजनीति को ही दर्शाता है।

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