नवाज के कंधों पर राजनीति, गालियों और गोलियों की बंदूक


राजीव रंजन

2.5 स्टार (ढाई स्टार)
निर्देशक : कुषाण नंदी
कलाकार : नवाजुद्दीन सिद्दीकी, विदिता बाग, जतिन गोस्वामी


इन दिनों जब किसी फिल्म से नवाजुद्दीन सिद्दीकी का नाम जुड़ा होता है तो दर्शकों की उम्मीदें बढ़ जाती हैं। लेकिन उम्मीदें हर बार पूरी हों ही, यह जरूरी नहीं। चाहे कितना भी बड़ा भी कलाकार क्यों न हो, अकेले वह कमाल नहीं कर सकता। इसके ढेर सारे उदाहरण हैं। कुशान नंदी निर्देशित और नवाजुद्दीन स्टारर
के साथ कुछ ऐसी ही है। इस फिल्म में कुषाण ने नवाज के कंधे पर बंदूक रख कर ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ का नया संस्करण रचने की कोशिश की है। उन्होंने गालियां भी खूब इस्तेमाल की हैं, हिंसा भी खूब करवाई है और सेक्स का तड़का भी लगाया है, लेकिन वह असर पैदा नहीं कर पाए हैं, जो ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में था।

दरअसल फिल्म की पटकथा ढीली हो, प्रस्तुतीकरण में ताजगी न हो तो सारे मसाले होते हुए भी जायका जुबान पर नहीं चढ़ पाता। इस फिल्म में मसाले तो सारे हैं, लेकिन उनका कितना और कैसा इस्तेमाल किया जाए, इसे तय करने में निर्देशक कुषाण नंदी चूक गए। यही वजह है कि ‘बाबूमोशाय बंदूकबाज’ एक बेहतर फिल्म होने की संभावना लिए होते हुए भी औसत के आसपास की फिल्म रह गई है। वह तो भला हो कि इसमें कलाकारों ने अपना काम अच्छे से किया है और संवाद काफी रोचक हैं, वरना यह औसत भी नहीं रह पाती।

कहानी की पृष्ठभूमि पूर्वांचल के किसी इलाके की है। बाबू बिहारी (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) एक कांट्रैक्ट किलर है, जो अमूमन इलाके के नेता दूबे जी (अनिल जॉन) और सुमित्रा यानी जिज्जी (दिव्या दत्ता) के लिए लोगों की हत्या करने का काम करता है। वह एक दिन एक व्यक्ति को मारने के लिए जाता है, जहां उसकी नजर फुलवा (विदिता बाग) से टकरा जाती है और बाबू को उससे प्यार हो जाता है। फुलवा के कहने पर बाबू दो और लोगों को मार देता है और फुलवा को अपने घर लेकर आ जाता है। फुलवा के साथ बाबू का जीवन मजे से गुजर होता है कि अचानक एक दिन उससे बांके बिहारी (जतिन गोस्वामी) टकरा जाता है। वह भी बाबू जैसा शार्प शूटर बनने की तमन्ना रखता है और उसे अपना गुरु मानता है। एक दिन बाबू को तीन आदमियों को मारने का कांट्रैक्ट मिलता है, जिसमें जिज्जी का बेहद खास आदमी त्रिलोकी (मुरली शर्मा) भी है। बाबू यह बात जिज्जी को बताता है और कहता है कि वह त्रिलोकी को कुछ दिन के लिए अंडरग्राउंड कर दे, लेकिन जिज्जी उसे चुनौती देती है कि वह त्रिलोकी को मार कर दिखाए। बाबू के जिज्जी के पास जाने की बात दूबे को पता चल जाती है। वह त्रिलोकी और अन्य दो लोगों का मारने का कांट्रेक्ट बांके को दे देता है। इस कांट्रैक्ट को लेकर बांके और बाबू के बीच एक शर्त लगती है कि जो पहले तीनों को मार देगा, पैसा उसी को मिलेगा और हारने वाला इस धंधे से बाहर हो जाएगा। सेक्स, हिंसा, राजनीति के गठजोड़ में पुलिस भला कैसे अलग रह सकती है, सो इसमें एक स्थानीय पुलिसवाला (भगवान तिवारी) भी है।

प्लॉट तो दिलचस्प है और किरदारों की पृष्ठभूमि भी, लेकिन फिल्म रह-रह कर झटके खाती रहती है। कई दृश्य बेवजह हैं और फिल्म के प्रवाह को बाधित करते हैं। अगर निर्देशक बहुत सारी चीजें दिखाने के मोह से बच जाते और अपने विषय पर फोकस करते तो यह बहुत मजेदार फिल्म हो सकती थी। वैसे इस फिल्म में एक खासियत तो है कि यह ‘प्रिडेक्टबल’ नहीं है और कई दृश्य काफी रोचक हैं। खासकर फिल्म के शुरुआती सीन, फुलवा और बाबू की पहली मुलाकात के सीन और वह सीन, जिसमें बाबू व बांके अपनी कहानी एक-दूसरे को बताते हैं। फिल्म का क्लाईमैक्स अच्छा है। चौंकाता है।

फिल्म का संगीत ठीक है। खासकर ‘बर्फानी’ और ‘फिर न अइहें जवानी’ सुनने में अच्छे लगते हैं और उनका फिल्मांकन भी अच्छा है। फिल्म के संवादों में पंच है। फिल्म भले उम्मीदों पर पूरी तरह खरी नहीं उतरती, लेकिन नवाजुद्दीन एक बार फिर उम्मीदों पर खरे उतरे हैं। एक भावशून्य कांट्रैक्ट किलर और भावपूण प्रेमी दोनों रूपों में वह अच्छे लगे हैं। बिदिता बाग अपने अभिनय से संभावनाएं जगाती हैं। अपने किरदार की हर परत को उन्होंने सफलतापूर्व जिया है। जतिन गोस्वामी भी प्रभावित करते हैं। दिव्या दत्ता शानदार अभिनेत्री हैं और यहां भी निराश नहीं करतीं। पुलिस वाले के रूप में भगवान तिवारी ध्यान खींचने में कामयाब रहे हैं। बाबू की प्रेमिका यास्मीन के रूप में श्रद्धा दास को जिस तरह इस्तेमाल किया गया है, उसमें वह ठीक लगी हैं। मुरली शर्मा अच्छा काम करते हैं, लेकिन उनके लिए फिल्म में ज्यादा स्कोप नहीं था। अनिल जॉन ठीक हैं।

अगर आप नवाजुद्दीन के प्रशंसक हैं और गालियां आपके कानों को और अंतरंग सीन आपकी आंखों को बुरे नहीं लगते तो फिल्म देख सकते हैं। संवाद भी मजेदार हैं। बस ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ से तुलना मत कीजिएगा, नहीं तो बहुत निराश होंगे।

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