फिल्म ‘आर्टिकल 15’ की समीक्षा

एक मौजूं मसले पर तीखी टिप्पणी

राजीव रंजन

लेखक व निर्देशक : अनुभव सिन्हा

कलाकार: आयुष्मान खुरानाईशा तलवारमनोज पाहवासयानी गुप्ताकुमुद मिश्रा

तीन स्टार (3 स्टार)

संविधान की ‘धारा 15’ यानी समानता का अधिकार। यह धारा राज्य द्वारा जाति, धर्म, नस्ल, लिंग, जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव से नागरिकों की रक्षा करती है। दुर्भाग्य से आजादी के कई दशक बाद भी इस धारा के लक्ष्य तक हमारी व्यवस्था, हमारा समाज नहीं पहुंच पाया है। समाज में जाति, धर्म, नस्ल, लिंग के आधार पर भेदभाव भले ही कुछ दशक पूर्व जैसा न हो, लेकिन अभी भी मौजूद है और ऐसी घटनाएं अकसर सुनने को मिल जाती हैं, जो समाज के सभ्य होने के दावे पर प्रश्नचिह्न खड़े करती रहती हैं। अनुभव सिन्हा निर्देशित ‘आर्टिकल 15’ ऐसी ही एक घटना के जरिये सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था पर तीखी टिप्पणी करती है।
आईपीस अधिकारी अयान रंजन (आयुष्मान खुराना) की पोस्टिंग उत्तर प्रदेश के एक भीतरी इलाके लालगांव में हो जाती है। वहां चीजें वैसी ही चलती हैं, जैसे दशकों से चलती आ रही हैं। उस इलाके के एक गांव की तीन लड़कियां गायब हो जाती हैं। परिवार वाले थाने में रिपोर्ट दर्ज कराना चाहते हैं, लेकिन पुलिस वाले इस मामले में दिलचस्पी नहीं लेते। उन्हें लगता है कि ‘ये लोग’ ज्यादा तवज्जो के लायक नहीं है। गायब होने के दो-तीन बाद दो लड़कियों (जो चचेरी बहनें हैं) की लाश एक पेड़ पर टंगी मिलती है। तीसरी लड़की अभी भी लापता है।

अयान इस केस की पूरी गंभीरता और ईमानदारी से जांच शुरू करता है। दूसरी ओर, उसका जूनियर अधिकारी ब्रह्मदत्त (मनोज पाहवा) इस केस को अलग कोण देने के लिए इसे मीडिया में ऑनर किलिंग के रूप में प्रचारित कर देता है। इसी बीच गायब लड़की पूजा की बड़ी बहन गौरा (सयानी गुप्ता) अयान को कई अहम बातें बताती है। वहीं दलित नेता निषाद (जीशान अय्यूब) पुलिस के रवैये से आक्रोशित होकर पुलिस की जीप को चला देता है, जिसमें पुलिस कांस्टेबल जाटव (कुमुद मिश्रा) और मयंक (आशीष सिन्हा) सवार थे और तहकीकात के लिए पास के एक गांव में जा रहे थे। दोनों जीप से कूद कर अपनी जान बचाते हैं
जांच के क्रम में अयान को कई झिंझोड़ देने वाली बातें पता चलती हैं। ब्रह्मदत्त उससे इस दलदल में नहीं उतरने की सलाह देता है। लेकिन वह दोनों लड़कियों की हत्या के सच और तीसरी लड़की पूजा को ढूंढ़ने में लगा रहता है। वह इस मसले पर अपनी पत्नी अदिति (ईशा तलवार) से बातें करता है, जो एक एनजीओ से जुड़ी है और देसी-विदेशी पत्रिकाओं में लिखती भी रहती है। अयान इस केस में उससे और एक स्थानीय पत्रकार से मदद भी लेता है। मामला रसूखदारों से जुड़े होने के कारण उस पर ‘ऊपर’ से भी दबाव आता है और केस सीबीआई को सौंप दिया जाता है। सीबीआई इस केस की लीपापोती में लग जाती है और सीबीआई अधिकारी पणिक्कर (नसीर) अयान को ही कटघरे में खड़ा करने की कोशिश करता है, पर अयान अपने मिशन में जुटा रहता है...

आज से करीब पांच साल पहले, मई 2014 में बंदायू में दो बहनों की लाश एक पेड़ पर टंगी मिली थी। उसमें पहले सामूहिक रेप और हत्या की बात सामने आई, फिर उसे ऑनर किलिंग कहा गया। फिर सीबीआई ने जांच शुरू की और उस पर लीपापोती का आरोप लगा। फिल्म उसी घटना से प्रेरित है। अनुभव सिन्हा ने इस फिल्म के जरिये दलितों पर अत्याचार, जाति और धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल को दिखाने की कोशिश की है। फिल्म के लोकेशन वास्तविक लगते हैं और उत्तर प्रदेश के पिछड़े इलाकों की प्रामाणिक तस्वीर पेश करते हैं। पटकथा अच्छी है, लेकिन उसमें कई झोल भी हैं, जो इस फिल्म को कालजयी बनने से वंचित कर देते हैं। सिनेमेटोग्राफी शानदार है और फिल्म की इंटेंसिटी को बढ़ाता है। कैमरा अपनी आंखों से ही बहुत कुछ कह देता है। संवाद असर डालने वाले हैं।

फिल्म दर्शकों के मानस पर असर डालती है और इंटरवल से पहले अपने कथ्य को पूरी ईमानदारी और सघनता के साथ पेश करती है। लेकिन दूसरे हाफ में यह कई अनावश्यक (फिल्म के नजरिये से) बातों में फंस जाती है, जो इसकी धार को कम करते हैं। कई बार लगता है कि इसे किसी ‘खास इरादे’ से बनाया गया गया है। इंटरवल के बाद बहुत बार ऐसा लगता है कि यह एक विशुद्ध राजनीतिक फिल्म है, हालांकि यह कोई बुरी बात नहीं है। लेकिन समस्या वहां खड़ी होती है, जब ऐसा लगता है कि निर्देशक अनुभव सिन्हा को दलितों की यथार्थ स्थिति को बयां करने से ज्यादा दिलचस्पी एक विशेष वैचारिक पक्ष के नजरिये को दिखाने की है। कोई फिल्म के अंत में अयान खाने-पीने की दुकान चलाने वाली अम्मा से पूछता है- ‘कौन जात हो अम्मा!’- यह छोटा-सा संवाद अपने आप में बहुत कुछ बयां कर देता है। फिल्म शुरू से लेकर इंटरवल तक सच की पड़ताल करती दिखाई देती है, लेकिन बाद में इधर-इधर भटकने लगती है। पटरी से उतरती है, फिर पटरी पर आती है। यह कई जगह उद्वेलित करती है, कई जगह भावुक और कुछ जगहों पर एक मनुष्य के रूप में शर्मसार भी। निर्देशक रणनीतिक रूप से संतुलन बनाने की कोशिश करते हैं और कई जगह सफल भी रहते हैं। फिल्म का क्लाईमैक्स बॉलीवुड की आम फिल्मों जैसा है, लेकिन उम्मीद जगाता है कि अगर ईमानदारी से प्रयास किया जाए, तो चीजें ठीक हो सकती हैं।
आयुष्मान खुराना ने अपने करियर में जिस तरह के किरदार निभाए हैं, इस फिल्म में उससे बिल्कुल अलग किरदार में हैं और ऐसा लगता है कि उसमें समा गए हैं। ऐसा लगता है कि यह किरदार उन्हीं के लिए है। यह उनका अब तक का सर्वश्रेष्ठ अभिनय हैं। वह अभिभूत कर देते हैं। मनोज पाहवा शानदार अभिनेता हैं और हर बार प्रभावित करते हैं। चाहे भूमिका हास्य वाली हो या गंभीर। सयानी गुप्ता ने भी अपने हिस्से का काम बढ़िया किया है। कुमुद मिश्रा भी अपने किरदार को जीवंत कर देते हैं। नसीर, सुशील पांडेय, शुभ्रज्योति बरत, आशीष सिन्हा, रोंजिनी चक्रवर्ती, ईशा तलवार सबका काम बढ़िया है। जीशान अय्यूब भी अतिथि भूमिका में है और दलित नेता निषाद के छोट-से रोल में भी असर डालने में कामयाब रहे हैं। कलाकारों का अभिनय इस फिल्म का एक सशक्त पहलू है। गंभीर विषय के बावजूद यह फिल्म कहीं बोझिल नहीं लगती, निश्चित रूप से यह फिल्म की सफलता है।

(29 जून, 2019 को हिन्दुस्तान’ में प्रकाशित)

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