फिल्म नक्काश की समीक्षा

सद्भाव को नक्श करने की कोशिश

राजीव रंजन

निर्देशक: जैगम इमाम

कलाकार: इनामुल हकशारिब हाशमीकुमुद मिश्रापवन तिवारी

दो स्टार (2 स्टार)

सवधर्म समभाव और सह-अस्तित्व की भावना भारतीय संस्कृति की मूल भावना रही है। हमारे यहां कहा भी गया है- संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्’ (हम साथ मिल कर चलेंसाथ मिलकर बोलेंहमारे मन एक हों)। जब-जब इन मूल्यों को चुनौती मिलती हैसमाज के संवेदनशील लोग उसका डट कर मुकाबला करते हैं। भले ही इसके लिए उन्हें कोई भी कीमत चुकानी पड़े। जैगम इमाम की फिल्म नक्काश’ यही संदेश देती है।
बनारस का अल्लारक्खा सिद्दीकी (इनामुल हक) एक नक्काश है। वह मंदिरों के अंदर नक्काशी का काम करता है। उसके बाप-दादा और पुरखे भी यही काम करते थे। उसका मानना है कि भगवान इनसान-इनसान में कोई फर्क नहीं करतेबल्कि फर्क इनसान करता है। अल्लारक्खा की पत्नी का देहांत हो चुका है। उसके परिवार में सिर्फ उसका 6-7 साल बेटा मोहम्मद (हरमिंदर सिंह) हैजिसे वह घर में छोड़ कर अपने काम पर जाता है और बाहर से ताला लगा देता है। भगवानदास वेदांती (कुमुद मिश्रा) बनारस के एक बड़े मंदिर के मुख्य पुजारी हैं। उनकी नजर में अल्लारक्खा एक बेहतरीन नक्काश हैइसलिए उन्होंने उसे मंदिर की नक्काशी काम सौंप रखा है। वेदांती जी अल्लारक्खा पर इतना भरोसा करते हैं कि उसे मंदिर का सोना-चांदी सौंप देते हैंजिसे वह अपने घर ले जाकर गलाता हैताकि नक्काशी के लिए उसका इस्तेमाल कर सके।

बनारस में उन दिनों हिन्दुओं व मुसलमानों के बीच अविश्वास की खाई बढ़ गई हैइसलिए माहौल में तनाव आ गया है। यही वजह है कि अल्लारक्खा जब मंदिर में जाता हैतो अपने कपड़े बदल लेता है और माथे पर तिलक लगा लेता है। एक दिन कोतवाली का पुलिस इंस्पेक्टर (राजेश शर्मा) उसे पकड़ लेता है और थाने में बंद कर देता है और उसकी खूब पिटाई भी करता है। वेदांती जी उसे आकर छुड़ाते हैं। उधर घर में अकेला मोहम्मद अपने बाबा का इंतजार करता रहता है और बहुत देर हो जाने पर घर का दरवाजा खटखटा-खटखटाते बेहोश हो जाता है।
वेदांती जी का पुत्र मुन्ना उनके ठीक उलट है। वह एक ऐसी पार्टी से चुनाव लड़ना चाहता हैजो धर्म के आधार बांटने की राजनीति करती है। अल्लारक्खा का एक दोस्त है समद (शारिब हाशमी)जो ऑटोरिक्शा चलाता है। उसके पिता की बहुत प्रबल इच्छा है हज करने की। वह समद को इसके लिए हमेशा ताने देते रहते हैं। वह इस कारण बहुत तनाव में रहता है।

एक दिन अल्लारक्खा लखनऊ चला जाता है सबीहा (गुलकी जोशी) से दूसरी शादी करने के लिए। इसी बीच समद अल्लारक्खा के घर रखे मंदिर के सोने के जेवर चुरा लेता हैताकि अपने पिता को हज पर भेजने के लिए पैसे का प्रबंध कर सकेलेकिन पकड़ लिया जाता है। अल्लारक्खा जब शादी करके लौटता हैतो अपने घर को सील हुआ देखता है। बात पता चलने पर वह कोतवाली जाता है और सब माजरा जान कर चोरी का आरोप अपने ऊपर ले लेता हैताकि समद के पिता हज पर जा सकें। लेकिन वेदांती जी का मानना है कि अल्लारक्खा ऐसा काम नहीं कर सकता। उनके कहने पर पुलिस अल्लारक्खा व उसके बेटे को लेकर मंदिर आती हैजहां वेदांती जी अल्लारक्खा को कसम देते हैंतब अल्लारक्खा सच बता देता है। पुलिस फिर से समद को गिरफ्तार कर लेती हैउसके पिता की मौत हो जाती है। जेल से निकलने के बाद समद पूरी तरह धार्मिक बन जाता है और अल्लारक्खा से दूरी बना लेता है...

फिल्म को देख कर बार-बार एक और फिल्म फिल्मिस्तान’ की याद आती है। इसकी वजह यह है कि उसमें भी इनामुल हकशारिब हाशमी और कुमुद मिश्रा की मुख्य भूमिकाएं थीं। हालांकि वह फिल्म हिन्दू-मुस्लिम विषय पर नहीं थीबल्कि भारत-पाकिस्तान की साझी सांस्कृतिक विरासत पर आधारित थी।
नक्काश’ की थीम अच्छी हैलेकिन पटकथा अच्छी तरह से नहीं लिखी गई है।  निर्देशक जैगम इमाम ने पूरी कहानी को कामचलाऊ तरीके से बयां कर दिया है। अगर पटकथा पर ढंग से मेहनत की गई होती और प्रस्तुतीकरण बेहतर होतातो यह फिल्म काफी बेहतर होती। कह सकते हैं कि फिल्मिस्तान’ जैसा असर छोड़ सकती थी। लेखक-निर्देशक अपनी बात दर्शकों तक पहुंचाने में कामयाब तो रहते हैंलेकिन असर नहीं छोड़ पाते। यह दिमाग तक तो पहुंचती हैलेकिन दिल तक नहीं पहुंच पाती। हालांकि इसकी पूरी संभावनाएं थीम में मौजूद थीं। सबकुछ बहुत यांत्रिक-सा लगता है। हांअल्लारक्खा और मोहम्मद के दृश्य जरूर कुछ असर छोड़ते हैं। दोनों बाप-बेटे की केमिस्ट्री प्रभावित करती है। फिल्म में एकाध कॉमिक दृश्य भी हैंलेकिन ठूंसे हुए लगते हैं। कई बातें फिल्म में क्यों हैंयह समझना थोड़ा मुश्किल है। अल्लारक्खा की दूसरी पत्नी सबीहा का किरदार क्यों गढ़ा गया हैसमझ में नहीं आता। बनारस की पृष्ठभूमि में बनी इस फिल्म में बनारस भी उभर कर नहीं आ पाता है। सिनमेटोग्राफर बनारस को अच्छे से नहीं दर्शा पाए हैं। गीत-संगीत भी साधरण हैजबकि ऐसी फिल्मों में उसकी भूमिका महत्वपूर्ण होती है। बतौर निर्देशक जैगम इमाम अपनी पिछली दोनों फिल्मों- दोजख’ और अलिफ’ के मुकाबले कमजोर नजर आते हैं। हालांकि उन्होंने गंगा-जमुनी तहजीब को ईमानदारी से पेश करने की कोशिश है और दोनों पक्षों के लोगों की अच्छाई को स्वीकारा है तथा कट्टरता को नक्कारा है। इस मामले में वे संतुलित नजर आते हैंलेकिन यह संतुलन बड़ा यांत्रिक-सा लगता है।

फिल्म का सबसे बेहतर पक्ष कलाकारों का अभिनय है। मुख्य भूमिका में इनामुल हक ने बहुत अच्छा अभिनय किया है। उन्होंने अपने किरदार के हर पहलु को बहुत अच्छे से उभारा है। शारिब हाशमी अच्छे अभिनेता हैं और उन्होंने अपना काम ठीक किया हैलेकिन उनके किरदार में नाटकीयता बहुत ज्यादा है। इस वजह से वे उतने स्वाभाविक नहीं लग पाते। ऐसा ही कुछ राजेश मिश्रा के किरदार के साथ भी है। निर्देशक उनसे उनके स्तर का काम नहीं ले पाए हैं। कुमुद मिश्रा भी प्रभावित करते हैं। उनको पर्दे पर देख कर अच्छा लगता है। बाल कलाकार हरमिंदर ने मासूमियत के साथ अपना काम किया है। पवन तिवारी और गुलकी जोशी का काम भी ठीक है। दूसरे कलाकार भी ठीक हैं।

(हिन्दुस्तान में जून, 2019 को प्रकाशित)

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