फिल्म ‘गेम ओवर’ की समीक्षा
‘डर के आगे जीत है’ का संदेश देती फिल्म
राजीव रंजन
कलाकार: तापसी पन्नू, विनोदिनी वैद्यनाथन, अनीष कुरुविला, संचना नटराजन, रम्या सुब्रमण्यण, पार्वती टी.
निर्देशक: अश्विन सरवनन
स्टार- 3 (तीन स्टार)
मनुष्य अपने जीवन में घटने वाली घटनाओं पर अपनी समझ और सामर्थ्य के अनुसार प्रतिक्रिया देता है। और वह जिस प्रकार की प्रतिक्रिया देता है, देता है घटना का परिणाम उसी के अनुरूप होता है। आपका नजरिया आपके एक्शन को निर्धारित करता है और आपका एक्शन, परिणाम को। तापसी पन्नू अभिनीत ‘गेम ओवर’ फिल्म का संदेश यही है।
स्वप्ना (तापसी पन्नू) एक कामकाजी लड़की है, जो गुड़गांव के पॉश इलाके में रहती है। वह वीडियो गेम की दीवानी है। वह अपने ही बनाए स्कोर को पीछे छोड़ने की कोशिश में लगी रहती है। उसके साथ केवल उसकी घरेलू सहायिका कलम्मा (विनोदिनी वैद्यनाथन) रहती है। स्वप्ना को अंधेरे से डर लगता और और वह दो सेकंड से ज्यादा देर तक अंधेरे का सामना नहीं कर पाती। एक साल पहले वह एक हादसे का शिकार होती है, जो उसके मस्तिष्क में बैठ गया है। उसके साथ जिस दिन हादसा हुआ था, उसी समय के आसपास एक लड़की अमृता (संचना नटराजन) का कत्ल होता है, जिसके सिर को काट कर कातिल फेंक देता है और धड़ को जला देता है। हालांकि उस लड़की का स्वप्ना से कोई सीधा संबंध नहीं है, लेकिन आगे चल कर दोनों के तार जुड़ते हैं। जब इस हादसे के घटने का दिन पास आता है, तो स्वप्ना को पैनिक अटैक होने लगता है। वह मनोचिकित्सक (अनीष कुरुविला) से मिलती है, जो उसे बताता है कि इसे ‘एनिवर्सरी रिएक्शन’ कहते हैं और यह उस समय होता है, किसी ऐसी दुखद घटना के आसपास के समय होता है, जिसने व्यक्ति के जीवन पर बहुत गहरा असर डाला है। इसी बीच उसके मां-पिता उससे मिलना चाहते हैं, लेकिन वह उनसे नहीं मिलना चाहती, क्योंकि उसके साथ हुए हादसे के लिए मां-बाप उसे ही जिम्मेदार मानते हैं।
स्वप्ना अपने साथ हुए हादसे से इतनी अधिक परेशान हो जाती है कि आत्महत्या की कोशिश भी करती है। संयोग से वह बच तो जाती है, लेकिन इस कोशिश में उसके दोनों पैर बुरी तर टूट जाते हैं और वह ह्वीलचेयर पर आ जाती है। सपना को अचानक पूर्वाभास होता है कि कोई उसका कत्ल करने वाला है। वह बिल्कुल घबरा जाती है और इस आगामी घटना को लेकर उसके अवचेतन में कई क्लाईमैक्स उभरते है। फिर उसे लगता है कि हर आदमी को दो जिंदगी मिलती है और दूसरी तब शुरू होती है, जब लगता है कि पहली खत्म हो गई। उसे लगता है कि खुद को बचाने का उसके पास सिर्फ एक मौका है और फिर वह अपने डर पर काबू पाकर लड़ने का फैसला करती है...
यह फिल्म अपने प्रस्तुतीकरण में कभी एक सस्पेंस थ्रिलर, कभी सुपरनेचुरल थ्रिलर लगती है, तो कभी साइकोलॉजिकल थ्रिलर। फिल्म के पहले सीन से लगता है कि यह किसी साइको सीरियल किलर से संबंधित है। जब स्वप्ना के टैटू की कहानी आती है, तो लगता है कि यह कोई सुपरनेचुरल थ्रिलर होगी। जब स्वप्ना डॉक्टर से मिलती है, तो लगता है कि यह किसी मनोवैज्ञानिक गुत्थी से जुड़ी फिल्म है। लेकिन वास्तव में यह कुछ और ही निकलती है। अगर संजीदगी से देखेंगे, तो यह फिल्म जो कहना चाहती है, आप समझ जाएंगे। इस फिल्म में एक ही घटना के तीन अंजामों को दिखाया गया है और वास्तविक अंजाम इनमें से कुछ भी हो सकता है। बहुत कुछ आपकी मनोस्थिति, घटना के प्रति आपकी प्रतिक्रिया पर निर्भर करता है।
मूल रूप से यह फिल्म तमिल और तेलुगू में बनी है और हिन्दी में डब की गई है। डबिंग की हल्की समस्या कहीं-कहीं नजर भी आती है। हालांकि इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि फिल्म का जो विषय है, उसका क्षेत्र और भाषा से बहुत संबंध नहीं है। उसका संबंध आदमी के नजरिये से है। फिल्म की पटकथा बहुत अच्छे-से लिखी गई है, इसलिए दर्शकों को यह अपने से जोड़े रखती है।
सिनेमेटोग्राफी शानदार है। कैमरा कहानी के हर भाव को बहुत प्रभावी तरीके से अपने अंदर कैद करता है। बैकग्राउंड म्यूजिक फिल्म को धार देता है। यह भय, रोमांच और रहस्य पैदा करता है। इस फिल्म में गाने की कोई जरूरत नहीं थी और कोई गाना रखा भी नहीं गया है। यही वजह है कि फिल्म कसी हुई लगती है और विषयांतर नहीं होता है।
फिल्मों की कहानी अमूमन ‘वनलाइनर’ होती है- ‘एक था राजा एक थी रानी, दोनों मर गए खत्म कहानी’ की तर्ज पर। अब राजा-रानी की कहानी को लेखक-निर्देशक किस तरह तानते हैं, फैलाते हैं, कहानी का सारा मजा इसी पर निर्भर करता है। इस मामले में निर्देशक अश्विनी सरवनन सफल रहे हैं। वह अपने निर्देशन से छाप छोड़ते हैं, प्रभावित करते हैं। इस तरह का प्रस्तुतीकरण मूल हिन्दी फिल्मों में कम देखने को मिलता है।
मुख्य भूमिका में तापसी पन्नू का अभिनय बेहतरीन है। फिल्म में वह इकलौती कलाकार हैं, जिन्हें उत्तर और दक्षिण भारत, दोनों क्षेत्रों के दर्शक जानते हैं। अच्छी अभिनेत्री होने के साथ-साथ शायद यह भी एक वजह रही होगी कि उन्हें इस फिल्म के लिए चुना गया। वह हर भाव को इतनी सफलता से उभारती हैं कि दर्शक उनका मुरीद हो जाता है। उनका अभिनय हर फिल्म में निखर रहा है, इस फिल्म में भी वह अपनी प्रतिभा का श्रेष्ठ दर्शन कराती हैं। कलम्मा के रूप में विनोदिनी वैद्यनाथन ऐसी लगती हैं, जैसे यह किरदार उन्हीं के लिए बना है। उनका अभिनय बहुत सहज, स्वाभाविक लगता है। फिल्म में कलाकारों की संख्या कम है, लेकिन जितने भी कलाकार हैं, उन्होंने अपने किरदारों को ठीक से जिया है और फिल्म के स्तर को ऊपर उठाने में मदद की है।
वैसे इस फिल्म में कई बातें ऐसी भी हैं, जो बहुत तार्किक नहीं लगतीं, समझ में नहीं आतीं या उनका जवाब नहीं मिलता। जैसेकि जो हत्यारा/हत्यारे हैं, वो जो कर रहे हैं, क्यों कर रहे हैं! उसके पीछे कोई मनोविकार है, या ऐसा उनसे कोई करवा रहा है, या उन्हें किसी विशेष प्रकार के लोगों से चिढ़ है? हो सकता है कि लेखक-निर्देशक के लिए इन सवालों का जवाब देने से ज्यादा मायने फिल्म की मूल बात रखती हो और वे फिल्म की लंबाई कम रखना चाहते हों, इसलिए वे दूसरे विवरणों में नहीं गए। लेकिन ये बातें थोड़ी खटकती तो हैं। फिर भी निस्संदेह यह एक लीक से हट कर फिल्म है और बहुत अच्छी तरह से बनाई गई है। आप रुटीन फिल्मों से हट कर कुछ देखना चाहते हैं, तो आपको यह फिल्म अच्छी लगेगी।
(15 जून 2019 को हिन्दुस्तान में संपादित अंश प्रकाशित)
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