फिल्म ‘मेड इन चाइना’ की समीक्षा
मुझे कुछ कहना है... क्या कहना है... पता नहीं
राजीव रंजन
निर्देशक: मिखिल मुसाले
कलाकार: राजकुमार राव, मौनी राय, बोमन ईरानी, सुमित व्यास, परेश रावल, मनोज जोशी
स्टार- 2
कुछ फिल्में आप शुरू से लेकर आखिर तक देख जाइए, लेकिन आप तय नहीं कर पाएंगे कि फिल्म कहना क्या चाहती है। जैसे ही आप उसके बारे में कुछ धारणा बनाने लगते हैं, कोई नई बात आकर उस धारणा को हिला देती है। ‘मेड इन चाइना’ भी ऐसी ही फिल्म है। इसे देख कर यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि यह किसी आदमी के हार न मानने वाले जज्बे की कहानी है या आम आदमी को यौन मुद्दों पर शिक्षित करने वाली कहानी है या बाजार में अपने आइडिया को बेचने के गुर सिखाने वाली कहानी है! फिल्म न तो कॉमेडी लगती है, न ही संजीदा नजर आती है। भोजपुरी में एक कहावत है- ‘ढेर जोगी मठ उजाड़’ यानी जिस मठ में बहुत सारे जोगी हो जाते हैं, वह उजड़ जाता है। बहुत सारे नैरेटिव वाली इस फिल्म पर भी यह कहावत चरितार्थ होती है।
एक चीनी प्रतिनिधि मंडल अहमदाबाद आता है। उस प्रतिनिधि मंडल का मुखिया ‘मैजिक सूप’ नामक ब्रांड का सूप चखता है। उसे चखने के बाद उसकी मौत हो जाती है और मामला हाईप्रोफाइल होने की वजह से हंगामा मच जाता है। जांच एजेंसी के अधिकारी ‘मैजिक सूप’ कंपनी के एक पार्टनर सेक्सोलॉजिस्ट डॉ. वरदी (बोमन ईरानी) के पास पहुंचते हैं। डॉ. वरदी बताते हैं कि सूप के प्रोडक्शन का काम उनका पार्टनर रघु (राजकुमार राव) देखता है। रघु जांच अधिकारियों के पास आता है और अपनी कहानी सुनाता है। उसी में ये बातें सामने आती हैं कि जब उसके सारे बिजनेस आइडिया फेल हो गए, तो उसे अपनी पत्नी रुक्मिणी (मौनी राय) और अपने बड़े पिताजी (मनोज जोशी) के दबाव में अपने चचेरे भाई देवराज (सुमित व्यास) के साथ चीन जाना पड़ा। वहां उसकी मुलाकात तन्मय शाह (परेश रावल) से हुई, जिन्होंने व्यापार के गुर बताए। वहीं उसकी मुलाकात एक चीनी हाउली (जेफ्री हो) से भी होती है, जो उसे एक ऑफर देता है। रघु अहमदाबाद आकर डॉ. वरदी के सहयोग से सूप बनाने का कारोबार शुरू करता है, जो पुरुषों की यौन क्षमता बढ़ाने में काफी कारगर साबित होता है...
फिल्म के पहले सीन को देख कर लगता है कि यह रहस्यमय हत्या के मामले से जुड़ी थ्रिलर फिल्म होगी। लेकिन थोड़ी देर बाद ऐसा लगने लगता है कि यह एक आदमी के संघर्ष की कहानी है, जो अपनी मेहनत और दृढ़संकल्प की बदौलत अपना मुकाम बनाता है। जब रघु चीन पहुंचता है, तो यह मार्केटिंग की महिमा बताने वाली फिल्म लगने लगती है। फिर रघु सेक्सोलॉजिस्ट डॉ. वरदी से मिलता है, तो यौन समस्याओं पर जागरूकता फैलाने वाली फिल्म बन जाती है। वैसे ये आजकल बॉलीवुड का प्रिय विषय बन गया है। ‘शुभ मंगल सावधान’ और ‘खानदानी शफाखाना’ का केंद्रीय विषय यही था। बहरहाल, ऐसा लगता है कि लेखक और निर्देशक यह तय ही नहीं कर पाए हैं कि उन्हें दर्शकों को क्या दिखाना और समझाना है। पूरी फिल्म दायें-बायें होती चलती है, शायद ही कभी सीधी राह पकड़ पाती है। कई सवालों के जवाब मिलते ही नहीं है और अंत में दर्शक भी भम्रित होकर सिनेमाहॉल से बाहर निकलता है कि उसने क्या देखा! परिंदा जोशी के इसी नाम के उपन्यास पर आधारित इस फिल्म, जिसके एक लेखक खुद जोशी भी हैं, का निर्देशन और पटकथा दोनों प्रभावहीन हैं। कभी भी ऐसा नहीं लगता कि यह फिल्म राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाली किसी फिल्म (गुजराती फिल्म ‘रॉन्ग साइड राजू’) के निर्देशक ने बनाई है। हां, दो-चार दृश्य ऐसे जरूर हैं, जिनमें थोड़ी हंसी आती है और क्लाइमैक्स में बोमन ईरानी थोड़ा-सा प्रभाव छोड़ते हैं।
राजकुमार राव अच्छे अभिनेता हैं और हर किरदार में अपने को झोंक देते हैं। इस फिल्म में भी उनका काम अच्छा है। लेकिन सिर्फ अभिनय से बात बन जाती, तो क्या बात होती! मौनी राय के किरदार में ज्यादा दम नहीं है और उनका अभिनय भी ऐसा नहीं है कि साधारण किरदार में भी वह कुछ बात पैदा कर दे। बोमन ईरानी ने अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है। खासकर क्लाइमैक्स के दृश्य में उन्हें प्रवचन जोरदार तरीके से दिया है। परेश रावल जब भी पर्दे पर आते हैं, अपने अंदाज से थोड़ा मनोरंजन करते हैं। सुमित व्यास का काम ठीक है। मनोज जोशी के हिस्से एक-दो सीन ही आए हैं, जिसमें वह ठीक लगे हैं। शिव खेड़ा से मिलते-जुलते किरदार चोपड़ा में गजराज राव जंचते हैं। उनका अभिनय अच्छा लगता है। हालांकि यह किरदार जबर्दस्ती ठूंसा हुआ लगता है, जिसके नहीं होने से फिल्म पर कोई फर्क नहीं पड़ता।
चीन में बने सामानों को लेकर भारत में खूब मजाक चलते हैं कि उनका कोई भरोसा नहीं कि कितने समय तक टिकेंगे। यानी उनकी गुणवत्ता को लेकर लोगों के मन में संदेह रहता है। अपने शीर्षक में चीन के नाम को जगह देने वाली इस फिल्म को लेकर भी यही बात सबसे पहले जेहन में आती है।
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