फिल्म ‘लाल कप्तान’ की समीक्षा

ताप नहीं है इस बदले की आग वाली कहानी में

राजीव रंजन

निर्देशक : नवदीप सिंह

कलाकार: सैफ अली खान, मानव विज, जोया हुसैन, दीपक डोबरियाल, सिमोन सिंह और अतिथि भूमिकाओं में नीरज कबी तथा सोनाक्षी सिन्हा

2 स्टार

कुछ कहानियां सुनने में, सुनाने में बड़ी अच्छी लगती हैं, लेकिन कागज से पर्दे पर उतरते उतरते कहीं खो जाती हैं या उनकी चमक फीकी पड़ जाती है। ‘लाल कप्तान’ भी एक ऐसी ही कहानी है। फिल्म का नाम, सैफ अली खान का गेटअप, नागा साधू का बदला, इसकी पृष्ठभूमि दर्शकों में उत्सुकता तो जगाते हैं, लेकिन फिल्म अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाती। फिल्म को देखते हुए बार-बार ‘धीमी गति के समाचार बुलेटिन’ याद आती रहती है।
बदले की आग में जल रहा एक नागा साधु गोसाईं (सैफ अली खान) बुंदेलखंड के एक किलेदार रहमत खान (मानव विज) को 20 सालों से ढूंढ रहा है। ढूंढ़ते-ढूंढ़ते वह रहमत के किले तक पहुंच जाता है, लेकिन वहां उसे एक औरत (जोया हुसैन) के अलावा कोई नहीं मिलता। वह औरत गोसाईं को बताती है कि किलेदार सारा खजाना लेकर अपने काफिले के साथ अवध की ओर रवाना हो गया है। औरत कहती है कि उसे काफिले के रास्ते के बारे में पता है। गोसाईं उसे लेकर एक बार फिर रहमत के पीछे निकल पड़ता है। गोसाईं को दो बार रहमत को मारने का मौका मिलता है, पर उसे नहीं मारता। क्यों? इस बात का पता बाद में चलता है, लेकिन तब तक फिल्म अपने धीमेपन की वजह से धार खो चुकी होती है। वहीं रहमत भी एक बार गोसाईं को पकड़ लेता है, लेकिन उसे नहीं मारता, क्योंकि वह जानना चाहता है कि गोसाईं को किसने भेजा है...

1764 के बक्सर के युद्ध के 20-25 वर्ष बाद की पृष्ठभूमि वाले इस पीरियड फिल्म में नागा संन्यासी के बदले की कहानी के साथ-साथ एक बच्चे की मजलूम मां और सूंघ कर आदमियों तथा जानवरों की खोज-खबर बताने वाले एक खबरी (दीपक डोबरियाल) की गाथा भी साथ-साथ चलती है, जो पैसे की खातिर किसी के लिए भी काम करने को तैयार रहता है। हालांकि तीनों की कहानियों के तार एक-दूसरे से जुड़े हैं।
18वीं सदी का समय, बदले की आग में जल रहा नागा साधु, एक क्रूर किलेदार, खजाने के लिए किलेदार के पीछे लगे मराठा सैनिक,  किलेदार और अंग्रेजों की सांठगांठ- यह सब मिलकर एक शानदार आभामंडल रचते हैं, लेकिन पर्दे पर यह आभा दिखाई नहीं पड़ती। इस आभा को धूमिल करने की सबसे बड़ी जिम्मेदार फिल्म की स्क्रिप्ट है। उसमें कोई रोमांच ही नहीं है। सब कुछ प्रत्याशित है। कहीं कोई टर्न और ट्विस्ट नहीं है। किरदारों को ठीक से गढ़ा गया है, अगर कहानी को भी ठीक से गढ़ा गया होता, तो यकीनन यह एक याद रखने लायक फिल्म होती। ‘आदमी के पैदा होते ही यमराज का भैंसा उसे लिवाने के लिए निकल पड़ता है। आदमी की जिंदगी उतनी ही है, जितना समय भैंसे को आदमी तक पहुंचने में लगता है’ और काल को लेकर एक-दो संवादों को छोड़ दें, तो संवादों में भी बहुत रोचकता नहीं है। उस पर तुर्रा यह कि फिल्म की गति बहुत धीमी है। चीजें इतनी धीरे-धीरे घटती हैं कि कोई उत्तेजना जगा ही नहीं पातीं।
ऐसा लगता है कि निर्देशक नवदीप सिंह अपने दिमाग जिस तरह फिल्म की कल्पना की होगी, जैसा बनाना चाहा होगा, उस तरीके से वह उसे पर्दे पर पेश नहीं कर पाए हैं। ‘मनोरमा सिक्स फीट अंडर’ और ‘एनएच 10’ के निर्देशक नवदीप इस फिल्म में कहीं भटक गए से लगते हैं। हालांकि वह 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध के कालखंड को थोड़ा-बहुत रचने में सफल रहे हैं और उन्होंने भारत की तत्कालीन राजनैतिक स्थितियों की भी हल्की झलक पेश की है, जब मराठे अपने उत्कर्ष पर थे और अंग्रेज भारत पर अपना राज कायम करने की ओर तेजी से बढ़ रहे थे। इसका नाम ‘लाल कप्तान’ क्यों है, यह भी समझ से परे है। लाल से बस इतना संबंध दिखाई देता है कि फिल्म का मुख्य किरदार अंग्रेजों वाली एक लाल जैकेट पहनता है। फिल्म की फोटोग्राफी अच्छी है, पर जब स्क्रिप्ट में ही कोई बात न हो, तो दूसरी चीजें कहां तक फिल्म को खींच सकती हैं!
अभिनय इस फिल्म का अच्छा पक्ष है। सैफ ने अपने किरदार की गहनता को बखूबी पेश किया है। उनकी बॉडी लैंग्वेज, संवाद अदायगी प्रभावित करती है। मानव विज अपने चेहरे और आवाज में क्रूरता लाए बगैर अपना काम कर जाते हैं। दीपक डोबरियाल का किरदार रोचक है और उन्होंने इसे शानदार तरीके से निभाया भी है। उनका गेटअप ‘पहेली’ के अमिताभ बच्चन की याद दिलाता है। जोया हुसैन का काम भी अच्छा है। उन्होंने अपने बच्चे से अलग कर दी गई मां के किरदार को प्रभावी तरीके से निभाया है। किलेदार की पत्नी की भूमिका में सिमोन सिंह भी ठीक लगी हैं। बाकी कलाकारों ने भी अपने किरदार के साथ न्याय किया है। सोनाक्षी सिन्हा और नीरज कबी अतिथि भूमिकाओं में हैं।

अगर इस फिल्म की लंबाई 40-45 मिनट कम होती, तो इसमें कुछ कसावट होती और यह एक अपेक्षाकृत बेहतर फिल्म होती। इस फिल्म में सामान्य सिनेमाप्रेमी के लिए ज्यादा कुछ नहीं है। हां, अगर आप सैफ अली खान के घनघोर प्रशंसक हैं, तो शायद इस फिल्म में आपको कुछ खुश होने लायक मिल जाए।

(19 अक्तूबर को ‘हिन्दुस्तान’ में संपादित अंश प्रकाशित)

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