मोहाज़िर

राजीव रंजन
देस बनाना चाहा था
परदेस को
देस छूट गया
और
परदेस परदेस ही रहा.

बंट गया हूँ
कई हिस्सों में.
जिस्म लोटता है
लहुलूहान होता है
परदेस की मिटटी में.
रूह भटकती है
ठिकाना खोजती है
देस की माटी में.

वर्षों बीत जाते हैं
परदेस को अपना बनाते
पर हाथ लगता है
सिर्फ एक मुश्त-ए-गुबार.
एक मुद्दत के बाद
देस भी बेगाना हो जाता है.

तनहाइयों के सफर में
भटकने वाले मुसाफिर
यादों के मोहाज़िर होते हैं.

टिप्पणियाँ

Pooja Prasad ने कहा…
...सिर्फ एक मुश्त अ गुबार

दिल्ली मे कुछ साल पहले ही आकर बसे अपने कई मित्रों को इस सालती तन्हाई से सामना करते महसूस किया है. राजीव जी आपने कविता में सच्चाई को खूबसूरत से अंदाज़ मे प्रकट किया है...भौगी हुई सच्चाईयो को आगे और पढ़ने की उमीद रहेगी.

पूजा प्रसाद

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