फिल्म ‘परीक्षा- द फाइनल टेस्ट’ की समीक्षा

लोगों से दूर होती महंगी शिक्षा पर टिप्पणी
राजीव रंजन

निर्देशक : प्रकाश झा

कलाकार: आदिल हुसैन, संजय सूरी, प्रियंका बोस, शुभम झा, शौर्य दीप, अनंत कुमार गुप्ता, सीमा सिंह, शीना राजपाल

स्टार- 2.5

प्रकाश झा उन फिल्मकारों में से हैं, जो अपनी फिल्मों के जरिये राजनीतिक-सामाजिक मुद्दों पर टिप्पणी करने के लिए जाने जाते हैं। दामुलसे लेकर मृत्युदंड’, ‘गंगाजल’, ‘अपहरण’, ‘राजनीति’, ‘आरक्षण’, ‘चक्रव्यूह’, ‘सत्याग्रहऔर अब परीक्षासे वे इस सिलसिले को बनाए हुए हैं। परीक्षाको उन्होंने सिनेमाघरों को ध्यान में रख कर बनाया था, लेकिन कोरोना से उपजी अभूतपूर्व परिस्थितियों की वजह से यह फिल्म ओटीटी प्लैटफॉर्म जी5’ पर रिलीज हुई है। यह भी एक संयोग है कि फिल्म तब आई है, जब देश में नई शिक्षा नीति की घोषणा हुई है। वैसे तो भारत में शिक्षा व्यवस्था हमेशा एक सामयिक विषय रही है, लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह और सामयिक हो गई है।

पिछले कुछ दशकों में भारत में सरकारी शिक्षा की स्थिति बद से बदतर होती गई है। एक समय ऐसा था, जब सरकारी स्कूल भले कम थे और साक्षरता दर भी कम थी, लेकिन सरकारी स्कूलों से पढ़े लोग अच्छे पदों तक पहुंचने में सफल रहते थे। लेकिन समय के साथ एक सुनियोजित षडयंत्र के तहत सरकारी शिक्षा को ऐसा बना दिया गया कि लोगों का इस पर से भरोसा उठ गया। दूसरी ओर, निजी शिक्षा संस्थान तेजी से फलते-फूलते गए। नतीजतन, शिक्षा ने दुधारु व्यवसाय का रूप ले लिया। यह प्राइवेट शिक्षा इतनी महंगी होती गई कि गरीब लोगों की पहुंच से दूर होती गई और उनके बच्चे उदारीकरण के इस युग में पिछड़ते चले गए। बहुत सारे लोगों ने अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देने का दुस्साहस किया और वे कर्ज में डूबते चले गए। परीक्षामूल रूप से इसी ज्वलंत विषय पर आधारित है।

बुच्ची पासवान (आदिल हुसैन) रांची की एक दलित बस्ती अंबेदकर नगर में रहता है और रिक्शा चलाता है। उसकी पत्नी राधिका (प्रियंका बोस) बर्तन की एक फैक्ट्री में काम करती है। उनका बेटा बुलबुल (शुभम झा) पढ़ने में काफी होशियार है। बुच्ची शहर के सबसे बड़े स्कूल के बच्चों को अपने रिक्शा पर स्कूल पहुंचाता है और उसके मन में अपने बेटे को उसी स्कूल में पढ़ाने की तमन्ना जाग जाती है। अच्छी पढ़ाई ही उसे वह जरिया लगती है, जो उसके परिवार को दयनीय हालात से निकाल सकती है। वह कुछ भी करके, तमाम बाधाओं को पार कर, अपने बेटे को उस स्कूल में दाखिला दिला देता है। लेकिन उसके सामने असली समस्या अब खड़ी होती है, जब उसे पता चलता है कि बड़े स्कूलों में फीस के अलावा भी ढेर सारे खर्चे होते हैं। ऐसे स्कूलों में किसी तरह पहुंच गए गरीब बच्चों को वर्ग-भेद का सामना भी करना पड़ता है।

अपने बेटे शुभम की पढ़ाई का खर्चा जुटाने के चक्कर में बुच्ची को हालात ऐसे मोड़ पर पहुंचा देते हैं, जिनके बारे में उसने सोचा भी नहीं था। इसी बीच परिदृश्य में रांची के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक कैलाश आनंद (संजय सूरी) आते हैं। उन्हें बुच्ची की कहानी पता चलती है। वह बस्ती में जाकर बुलबुल और दूसरे बच्चों को पढ़ाने लगते हैं। यह बात शहर के संभ्रांत लोगों को नागवार गुजरती है और वे बुलबुल की राह में रोड़े अटकाने की कोशिश में लग जाते हैं...

इस फिल्म में निर्देशक प्रकाश झा ने शिक्षा के अलावा, कई दूसरे राजनीतिक-सामाजिक मुद्दों को भी डाला है। हालांकि यह कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन बहुत कुछ कहने के चक्कर में फिल्म अपने केंद्रीय विषय के साथ पूरी तरह न्याय नहीं कर पाती। दरअसल, प्रकाश झा अपने क्राफ्ट में इतने सिद्धहस्त हैं कि उस दृष्टि से देखने पर यह फिल्म थोड़ी हल्की लगती है। फिल्म की पटकथा ठीक है, लेकिन यह प्रकाश झा की दूसरी फिल्मों गंगाजलऔर अपहरणकी पटकथा की तरह चुस्त नहीं है। झा ने इसमें वर्तमान शिक्षा व्यवस्था को जाति व्यवस्था से भी जोड़ा है कि महंगी शिक्षा तक दलितों-पिछड़ों की पहुंच नहीं है, पर यह पूरा सच नहीं है। सच यह भी है कि इस महंगी शिक्षा तक उन सभी लोगों की पहुंच नहीं है, जो साधनहीन हैं। फिल्म एक मौजूं विषय को उठाती है, पर इसमें यथार्थ उस रूप में मौजूद नहीं है, जिसकी दरकार थी। पटकथा पर थोड़ा और काम होना चाहिए था। बतौर निर्देशक प्रकाश झा अपने सर्वश्रेष्ठ रूप में नजर नहीं आए हैं। लेकिन यह फिल्म बोर नहीं करती। यह कई जगह सोचने पर मजबूर करती है, भावुक भी करती है।

फिल्म की सबसे बड़ी खासियत कलाकारों का अभिनय है। बुच्ची के रूप में आदिल हुसैन का अभिनय शानदार है। बच्चे को अच्छी पढ़ाई देने के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार एक रिक्शाचलक की भूमिका में वह शानदार लगे हैं। प्रियंका बोस के एक्सप्रेशन शानदार रहे हैं। अपनी भूमिका को वह पूरी शिद्दत के साथ निभाने में कामयाब रही हैं। किशोर बुलबुल की भूमिका में शुभम झा ने अपना काम पूरी खूबी के साथ किया है। बिहार के पूर्व पुलिस महानिदेशक अभयानंद से प्रेरित कैलाश आनंद की छोटी-सी भूमिका में संजय सूरी अच्छे लगे हैं। बाकी सभी कलाकारों ने भी अपने किरदार के साथ न्याय किया है।

यह फिल्म एक जरूरी विषय को उठाती है और उसमें काफी हद तक सफल भी रही है। ऐसी फिल्मों को देखा जाना चाहिए।

(livehindustan.com में 7 अगस्त और हिन्दुस्तान में 8 अगस्त, 2020 को संपादित अंश प्रकाशित )

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