फिल्म ‘यारा’ की समीक्षा

दिल तक नहीं पहुंच पाती दोस्ती की ये दास्तान

राजीव रंजन

निर्देशक : तिग्मांशु धुलिया

कलाकार: विद्युत जामवालअमित साधश्रुति हासनविजय वर्माकेनी बसुमतारीअंकुर विकलमोहम्मद अली शाहहेमेंद्र डंडोतिया

स्टार- ढाई

दोस्ती बॉलीवुड के प्रिय विषयों में से एक रहा है। इस विषय पर बनी फिल्मों को लोगों ने पसंद भी किया है। हासिल’, ‘पान सिंह तोमर’ और साहेब बीबी और गैंगस्टर’ जैसी प्रशंसित फिल्मों के निर्देशक तिग्मांशु धुलिया भी अब इस थीम पर फिल्म यारा’ लेकर आए हैं। यह फिल्म ओटीटी प्लैटफॉर्म जी5 पर रिलीज हुई है। यह बचपन के चार अनाथ दोस्तों की कहानी हैजिन्हें परिस्थितियां एक जगह लाकर इकट्ठा कर देती हैं और फिर चारों एक साथ धंधे और जिंदगी के सबक सीखते हैं। 1950 के दशक के शुरुआती वर्षों से शुरू हुई यह कहानी 1997 तक चलती है।

फागुन उर्फ परम (विद्युत जामवाल) का पिता चांद लोहार (हेमेंद्र डंडोतिया) पाकिस्तानी सीमा के पास स्थित राजस्थान के एक गांव में देसी हथियार बनाने का काम करता है। बंटवारे के कुछ वर्षों के बाद एक दिन एक आदमी पाकिस्तान से चांद के एक दोस्त के बेटे मितवा (अमित साध) को लेकर उसके पास आता है। वह चांद को बताता है कि पाकिस्तान में हिंदुओं के साथ-साथ भारत से वहां गए मुसलमानों की स्थिति भी अच्छी नहीं हैइसलिए मितवा को अपने पास रख ले। चांद मितवा को भी अपने बेटे फागुन के साथ पालने लगता है। एक दिन चांद के बनाए कट्टे से एक आदमी इलाके के जमींदार का खून कर देता है। जमींदार का भाई चांद को अपनी जान लेने के लिए मजबूर कर देता है।फागुन और मितवा जमींदार के भाई पर गोली चला कर भाग जाते हैं। बस में उन्हें चमन (संजय मिश्रा) नाम का आदमी मिलता है और दोनों उसके साथ भारत-नेपाल की सीमा के पास एक इलाके में पहुंच जाते हैं। यहां उन्हें रिजवान (विजय वर्मा) और बहादुर (केनी बसुमतारी) मिलते हैं। चमन और उसके साथी इस चौकड़ी गैंग’ से भारत-नेपाल में तस्करी कराते हैं। यहीं चारों की यारी शुरू होती है और वक्त के साथ गाढ़ी होती चली जाती है। चारों बड़े होकर उल्टे धंधे करते हैं।

एक दिन  फागुन की मुलाकात नक्सल आंदोलन से जुड़ी सुकन्या (श्रुति हासन) से होती है। चारों यार सुकन्या के ग्रुप को हथियारों की सप्लाई का काम करते हैं। इसी बीच फागुन को सुकन्या से प्यार हो जाता है। एक दिन गांव में जब सुकन्या और उसके साथी मीटिंग कर रहे होते हैंतो फागुनमितवारिजवान और बहादुर भी वहां पहुंच जाते हैं। पुलिस गांव को घेर लेती है और इन सभी को  पकड़ लेती है और बहुत यातना देती है। चारों को सजा हो जाती है। सबसे कम सजा मितवा को मिलती है। जेल से छुटने के बाद फागुनरिजवान और बहादुर मिलते हैंलेकिन मितवा का पता नहीं चलता कि वह कहां है। बाकी तीनों दिल्ली में अपना काम-धंधा शुरू कर देते हैं। वर्षों बाद एक दिन मितवा लौटता है और उसके बाद सबकी जिंदगी ही बदल जाती है...

इस फिल्म में दोस्ती के साथ आजादी के बाद के वर्षों में लोगों की दयनीय परिस्थितियोंऊंची जातियों की सामंतवादी सोचइमरजेंसीनक्सल आंदोलन की भी झलक देखने को मिलती है। लेकिन दिक्कत है कि इनमें कोई चीज गहरे तक नहीं पहुंच पाती है। दोस्ती की गर्माहट इस फिल्म में इस तरह नहीं बिखरती कि उसकी उष्मा दर्शकों तक पहुंच पाए। नक्सल आंदोलन के प्रति यह फिल्म सहानुभूतिपूर्ण नजरिया तो रखती हैपर उसे ढंग से पेश नहीं करती। इसी तरह सामंतवादी ढांचेआपातकाल के संदर्भ भी फिल्म में हैंलेकिन सब कुछ बहुत हल्के में निपटा दिया गया है। फिल्म में जिन बातों को दिखाने की कोशिश की गई हैउनमें वह एहसास पैदा नहीं हो पाताजिसकी दरकार थी। पटकथा मजबूत नहीं हैसंवाद भी प्रभावित करने वाले नहीं हैं। फागुन के किरदार को छोड़ दें तो बाकी तीन दोस्तों के किरदारों को ठीक से स्पेस नहीं मिल पाया है। तिग्मांशु धुलिया अच्छे निर्देशक हैंलेकिन इस फिल्म में वह अपनी उस साख को बरकरार नहीं रख पाते। फिल्म की शुरुआत प्रभावित करती हैलगता है आगे कुछ संजीदा देखने को मिलेगालेकिन जैसे-जैसे यह आगे बढ़ती हैबिखरती जाती है। क्लाइमैक्स निराश करता है।

फिल्म में अमित साधविजय वर्मा जैसे अच्छे कलाकार हैं और उनका काम भी बुरा नहीं हैपर स्क्रिप्ट का साथ नहीं मिल पाने की वजह से ज्यादा प्रभावित नहीं कर पाते। खासकरअमित साध का किरदार तो बिल्कुल ही उभर नहीं पाया है। विद्युत जामवाल एक्शन के महारथी हैं और उन्होंने एक्शन वाले दृश्य अच्छे किए हैंलेकिन अभिनय कामचलाऊ ही है। संजय मिश्रा की भूमिका बहुत छोटी है और उसमें भी कोई वजन नहीं है। श्रुति हासन बस ठीक लगी हैं। केनी बसुमतारी का काम भी ठीक है। बाकी सारे कलाकार भी बस ठीकठाक हैं। 
कुल मिलाकरकभी वर्तमान और कभी फ्लैशबैक में घूमती यह फिल्म असर नहीं छोड़ पाती।

(31 जुलाई को livehindustan.com और 1 अगस्त, 2020 को हिंदुस्तान में प्रकाशित)


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